Monday, April 23, 2012

Shrimad Bhagwad Gita- Pratham Adhyaay Se Aage..


श्लोक 
यद्द्यप्येते   न पश्यन्ति लोभो पहत चेतस:।
कुलक्षय कृतं   दोसम  मित्रद्रोहे  च   पातकं ।।(३८)
कथं  न ज्ञेयमस्माभि :  पापादस्मान्नी   वर्तितुम ।
कुलक्षयकृतं     दोसम          प्रपश्यद्भिरजनार्दन   ।।(३९)
अर्थ :यद्यपि   लोभ  से भ्रष्ट चित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न हुए दोस को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते तो भी हे जनार्दन  कुल के नाश से  उत्पन्न दोस को  जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटाने के लिए क्यों विचार नहीं करना चाहिए ।
व्याख्या
अर्जुन अपने तर्क के आधार पर युद्ध न करने के पक्ष में निजी सिद्धांत की चर्चा कर रहा है  उसका यह तर्क वास्तव में बड़ा ही नैतिक प्रतीत होता है तथापि यह मोह से ही उत्पन्न है 
श्लोक 
कुलक्षये प्रणश्यन्ति   कुलधर्मा: सनातना :
धर्मे नष्टे कुलं      क्रत्स्न्नमधर्मोSभिभवत्युत ।।(४०)
अर्थ :
कुल के नाश से सनातन कुल धर्म नस्त हो  जाते हैं धर्म के नाश  हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में  पाप भी बहुत फ़ैल जाता है
श्लोक :
अधर्माभिभवात्क्र्सन प्रदुष्यन्ति   कुलस्त्रिय: ।
स्त्रीसु दुस्टासु वार्स्नेय जायते वर्णसंकर ।।(४१)
सन्करौ  नरकायेव कुलाघ्नानाम  कुलस्य च 
पतन्ति पितरौय्हेसाम  लुप्त पिण्डोदक क्रिया ।।(४२)
दोसेरेते:    कुलघ्नानाम  वर्णशंकर कारकै:।
उत्साद्यन्ते  जातिधर्मा:  कुलधर्माश्च शास्वता: ।।(४३)
उत्सन्न   कुल धर्माणाम  मनुष्यानाम जनार्दन ।
नर्केSनियतम   वासो         भवतित्यनुशुश्रुम ।।(४४)
अहोबत  महत्पापं  कर्तुकव्यवसिता वयं
यद्राज्य सुखलोभेन  हन्तुम स्वजनमुद्यता : ।।(४५)
यदि माम प्रतिकारमशस्त्रम   शस्त्रपानय :।
धारत्र्रास्त्रा   रणे   हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ।।(४६)
 अर्थ :
हे कृस्न पाप के अधिक बढ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यंत दूषित हो जाती है और हे वार्स्नेया स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है ।वर्णसंकर कुलघातिओं   को और कुल को नरक में ले जाने के लिए ही होता है ।लुप्त हुई पिंड और जल की क्रिया वाले  अर्थात श्राद्ध और तर्पण की क्रिया से वंचित इन के पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते है इन वर्णसंकर कारक दोषों से कुल्घतिओं के सनातन कुल धर्म और जाती धर्म नस्त हो जाते हैं  हे जनार्दन जिनका कुल धर्म नस्ट होगया है ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित काल तक नरक में वास होता है ऐसा हम सुनते आये है । हा शोक हम लोग बुद्धिमान होकर भो महा पाप करने को तैयार हो गए है जो राज्य एवं सुख  के लोभ से स्वजनों को मारने के लिए उद्द्यत हो गए हैं  यदि शश्त्र रहित एवं सामना न करने वाले को शश्त्र हाथ में लिए हुए ध्रितरास्त्र के पुत्र रण में मार डाले तो वह मारना भी मेरे लिए अधिक कल्याण कारक होगा (४१--४६)
                                                                         संजय उवाच
श्लोक
 एवमुक्त्वार्जुन :  संख्ये रथोपस्थ  उपाविशत।
विस्रज्य सशरं चापं शोक संविग्न मानस :।।(४७) 
अर्थ :
संजय बोले रण भूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन इस प्रकार कह कर ,बाण सहित धनुस को त्याग कर रथ के पिछले भाग में बैठ गये 
व्याख्या :
श्लोक संख्या २८ से लेकर ४७ तक मोह से व्याप्त हुए अर्जुन के कायरता पूर्ण  स्नेह एवं शोक से युक्त वचनों का वर्णन है। अर्जुन ने जैसे ही सेना का निरीक्षण किया उसके मन में मोह व्याप्त होगया । अर्जुन ने युद्ध न करने के लिए जो तर्क दिए वे बड़े स्वाभाविक लगते हैं । सामान्य और संकुचित विचार वाले व्यक्ति को बहुत समझदारी भरी बात लग सकती है किन्तु उसके भीतर मोह तथा भ्रम भरा है जिसे भगवानही दूर करेंगे ।








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श्री कृष्ण अर्जुन संवाद में अर्जुन विषाद योग नामक श्रीमद्भगवद्गीता का प्रथम अद्ध्याय पूर्ण होता है