Sunday, July 11, 2010

shri mad bhagvad gita pratham addhyaay ..aage ...

व्याख्या :  भरत वंशियों अर्थात पांडवों एवं कौरवों में एक पक्ष राज छोड़ना नहीं चाहता है और दूसरा पक्ष एन केन प्रकारेण युद्ध न हो और शांति से मामला हल हो जाये अर्थात वार्तालाप से मामला सुलझ जाए तथा    युद्ध टल जाए और आपसी समझौता कारगर हो  ऐसी मान्यता वाले पांडव जन शांति सुलह के प्रयासों में असफल हो , जब युद्ध भूमि में आये  तब परम पराक्रमी अर्जुन ने दोनों सेनाओं के बीच रथ को ले जाने की बात कही  ताकि वह मध्यम मार्ग में खड़ा हो एवं अपने प्रति द्वंदियों को देख सके की इस घोर युद्ध में अन्याय का साथ देने उसके कितने अपने और पराये आये है अर्जुन के सोच विचार की व्यापकता भी उतनी ही है जितना की वह स्वयं में महान योद्धा है वह श्री कृष्ण का विनम्र भक्त भी है  वह काल जयी योद्धा द्वेष को लेकर समरांगन  में नहीं उतरा अपितु उन अपनो का चेहरा देखने युद्ध के मध्य में आया जो स्वार्थ के वशी भूत होकर अकारण एक दूसरे का रक्त बहाने आये हैं I  सम्प्रति उसके मन में अपनो के प्रति चाहत थी जो विशुद्ध मानवीय थी तथापि  युद्ध  समय की मांग एवं परिस्थिति जन्य था  I (यह व्याख्या है  श्लोक  २१ एवं २२ की )
योत्स्यमानानवेक्षेहम य एतेsत्र  समागता :I
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे         प्रियाचिकिर्शव  II २३ 
अर्थ :  दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में हित चाहने वाले जो जो ये राजा लोग इस सेना में आये है इनयुद्ध  करने वालों को मैं देखूँगा
व्याख्या : अर्जुन ने भगवान वासुदेव से कहा मुझे उन लोगों के चेहरे देखने दी जिए जो दुर्बुद्धि दुर्योधन का पक्ष लेने समरांगन में उतारे है I  यह वक्तव्य अर्जुन के मन में किसी द्विविधा ,भय  या सकोच के कारण नहीं  और न ही युद्ध पूर्व किसी योद्धा से छल पूर्वक अपने पक्ष में करने का रहा है  बल्कि उस महान धनुर्धर ने युद्ध के मद्ध्य में आकर उन योद्धाओं के चहरे देखने चाहे  जो संभवतयुद्धपूर्व  अर्जुन के चाहने वाले रहे हों या पांडवों के प्रति स्नेह का भाव रखने  या सहानुभूति रखने वाले हों तथापि   किसी कारण वश दुर्बुद्धि ,दुर्मति दुर्योधन का साथ दे रहे हों  अर्जुन की ऐसी युद्ध व्यंजना रण नीति  के तहत थी ताकि अपने विरुद्ध युद्ध के लिए आने वाले योद्धाओं का मनो वैज्ञानिक परीक्षण कर सके और युद्ध को अपने अनुकूल परिणति दे सके  युद्ध जब एक परिवार के मद्ध्य तय हो जाये तब धर्म संकट की स्थिति आती है तब ऐसा भी लग सकता है की क्या  इनसे भी युद्ध करना है मुझे ? क्या ये भी लड़ेंगे मुझसे आखिर यह युद्ध था महत्वाकांक्षाओं का ,हठ, का व्यामोह का ,अधर्मसे राज्य हड़पने का और दो भाईओं  की संतति के बीच का I ऐसे में महान विचार वान परम कृष्ण भक्त अर्जुन का उन लोगों को देखने का मन में भाव आना स्वाभाविक था

Friday, July 9, 2010

shri madbhagvadgita pratham addyaay ...aage..

अथ व्यवस्थितान द्रस्त्वा धार्तरास्त्रान कपिद्ध्वज : I
प्रवृत्ते शश्त्र सम्पाते धनुरुद्यम्य पांडव : II  २० 
हृषिकेशम तदा वाक्यमिदमाह  महीपते I (२१ अर्धांश पूर्व )
अर्थ :  हे राजन इसके बाद कपिद्ध्वज  अर्जुन ने मोर्चा बाँध कर डटे हुए ध्रतराष्ट्र -सम्बन्धियों को देख कर ,उस शश्त्र चलाने की तयारी के समय धनुष उठाकर हृषिकेश श्रीकृष्ण  महाराज से ये वचन कहा I
                                                      अर्जुन उवाच
सेनयोरुभओर्मद्ध्ये   रथं स्थापय मेंsअच्युत  II (२१ अर्धांश उत्तर )
अर्थ :हे अच्युत मेरा रथ दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिये
यावाद्देत्ता न्निरीक्षेहम योद्धुकामानावास्थितन I
कैर्मया        सह   योद्धव्यमस्मिन्रंसमुद्य्म्मे II ( २२ )
अर्थ :और जब तक क़ि मैयुद्ध  क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख लूं की इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे  किन किन के साथ युद्ध करना योग्य है I तब तक उसे खड़ा रखिये I

Wednesday, July 7, 2010

SHRI MADBHAGVAD GITA PRATHAM ADDHYAY..AAGE

स घोषो धार्त्रराश्त्रानाम        हृदयानि व्यदारयत I 
नभश्च प्रथिवीम    चैव  तुमुलो व्यनुनादयन II १९ 
अर्थ : और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुंजाते हुए धार्तराष्ट्रों के अर्थात आपके पक्ष वालो के ह्रदय विदीर्ण कर दिए  I
 व्याख्या :  उपर्युक्त  श्लोक १२ से १९ तक
ऊपर लिखे श्लोको में शंखनाद एवं अन्य रण भेरियों का उच्च नाद युद्ध  भूमि में गुन्जाय मान होता है पितामह भीष्म ने दुर्योधन के मन में यह भाव पैदा करने के लिए कि उन्होंने  ने युद्ध की पूरी तयारी के साथ कमान संभाल ली है  एवं  सेनापति के रूप में कुरु सेना की ओर से एक तरह से युद्ध भूमि में स्वयं  सेनापति के रूप में उपस्थति का उल्लेख कियाI  उसी समय कुरुसेना की ओर से बहुत सारे योद्धाओं के तुमुल  तुरही सिंगी आदि उच्च नाद उत्पन्न  करने वाले बाजे बज उठे तत्पश्चात  अपने दिव्य रथ पर  आरूढ़ होकर    अर्जुन एवं सारथी  के रूप में श्री कृष्ण ने अपने  अपने शंख बजाये एवं युधिष्ठिर समेत समस्त पांडवों ने शख बजाकर पितामह के  सिंह  नाद का समवेत स्वर से शंख नाद के तीव्र घोष द्वारा प्रति उत्तर दिया उसके पश्चात पांडु सेना के सबसे जाने माने योद्धाओं ने भी शंख ध्वनि की  Iयहाँ द्रस्तव्य है की पांडु सेना क़ी समवेत शंख ध्वनि  कौरवों के ह्रदय को दहलाने का कारण बनी जबकि भीष्म का शंखनाद मात्र दुर्योधन के मन में  पितामह द्वारा युद्ध करने की आशा का संचार उत्पन्न करने का कारण मात्र बना  I
यहाँ शंख के नामों का उपरुक्त श्लोकों में  केवल मधुसूदन भगवान श्रीकृष्ण   के साथ पांच पांडवों  का नाम था शेष  किसी योद्धा के द्वारा बजाये गए शंख का नाम उल्लेख में नहीं आया है I

shri madbhagvadgita pratham addhyay aage ...

द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वश : प्रथिवीपते I
सौभद्रश्च महाबाहु : शंखान्दध्मु : प्रथक प्रथक  II १८ 
अर्थ : श्रेष्ठ धनुष वाले काशिराज और महारथी शिखंडी एवं ध्रिस्त्द्युम्न  तथा राजा विराट और अजेय सात्यकी ,राजा द्रुपद और द्रौपदी के पाँचों पुत्र और बड़ी भुजा वाले सुभद्रा  पुत्र अभिमन्यु  इन सभी ने हे राजन  सब और से अलग अलग शंख  बजाये 
यह अर्थ श्लोक १७ और १८ दोनों का सम्मिलित रूप से है

Tuesday, July 6, 2010

shri madbhagvadgita pratham addhyay....aage..

                                                                 शंख नादतस्य संजनयन  हर्ष   कुरु वृद्ध पितामह :I
सिंह नादं विनिद्द्यौच्चे  शंखं दह्मौ प्रतापवान  II १२
अर्थ :कौरवों  मेसबसे प्रतापी  वृद्ध  पितामह भीष्म ने उस दुर्योधन के ह्रदय  में हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वर से सिंह की दहाड़ के समान गरज कर शंख बजाया
तत : शंखाश्च भेर्यस्च पणवानक गोमुखा I
सह्सैवाभ्य हन्यंत स शब्दस्तुमुलोsभवत II १३    
अर्थ : इसके पश्चात शंख  और नगारे तथा ढोल मृदंग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हुआ I
तत : स्वेतेर्हयेर्युक्ते महति    स्यन्दने स्थितौ I 
माधव : पान्दवास्चैव    दिव्यौ शन्खौ प्रदध्मतु II १४
 अर्थ : इसके अनंतर सफ़ेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए श्रीकृष्ण    महाराज और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाये I
पान्चजन्यम  हृषीकेशो देवदत्तं धनजय :I
पौन्द्रम दध्मौ महाशंखभीम कर्म वृकोदर :II    १५
अर्थ :  श्रीकृष्ण महाराज ने पांचजन्य नमक अर्जुन ने देवदत्त नमक और भयानक कर्म वाले भीमसेन ने पौन्द्र नमक
महा शंखबजाया
अनत विजयं  राजा कुन्तीपुत्रो युधिस्ठिर :I
नकुल : सहदेवश्च सुघोषमणि पुश्पकौ II   १६ 
अर्थ : कुंती पुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष  और मणिपुष्पक नमक शंख बजाये
  काश्यश्च परमेस्वास  :  शिखंडी च महारथ :  I
 ध्रिस्त्द्युम्नो      विराटश्च सात्य्किश्च्पराजिता  :II    १७ 

Monday, July 5, 2010

shri madbhagvad gita addhyay pratham...aage..

अयनेसु च सर्वेषु  यथा भागमवस्थिता :    I
 भीस्ममेवाभिरक्षन्तु     भवन्त : सर्व एव हि II ११
अर्थ : इसलिए सब मोर्चों पर सब अपनी अपनी जगह स्थित रहते हुए आपलोग सभी निस्संदेह भीष्म   पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें  I
व्याख्या :
आचार्य द्रोण पर पूर्ण विश्वाश व्यक्त करते हुए एवं उन्हें तरह तरह से मानसिक स्तर से पूर्ण रूपेण कौरुओं के पक्ष में करते हुए तथा युद्ध हेतु उकसाते हुए  दुर्योधन पितामह भीष्म की प्रशंसा   करता है एवं उनमे पूर्ण विश्वास व्यक्त करता है दुर्योधन सोचता है की कहीं अन्य धुरंधर योद्धा जो युद्ध में दुर्योद्धन के लिए जीवन की इक्षा का त्याग करके आये हैं उन्हें कहीं ऐसा न लगे की युव राज केवल आचार्य द्रोण एवं पितामह भीष्म की ही शौर्य गाथा गा  रहा है इस भ्रम को दूर करने हेतु उसने सभी योद्धाओं से कहा की आप सभी ओर से पितामह भीष्म की ही रक्षा करें अर्थात पितामह अब वृद्ध हो चुके हैं इस तरह से सभी योद्धाओं  से पितामह की रक्षा का निवेदन किया यह कूट नैतिक सन्देश दुर्योधन की वाकचातुरी का परिचायक है  कोई भी राजा हो युवराज हो या मंत्री जब तक वह   वाणी के कूटनैतिक प्रयोग में सक्षम नहीं होता तब तक उस पद का अधिकारी नहीं हो सकता हालां की कूट नीति में निपुण होना राजा होने केलिए आवश्यक  बहुत सारे गुणों में से एकगुण  होता है तथापि यह गुण राजा के लिए आवश्यक अंग है हालाँकि दुर्योधन कुरुवंश में सबसे बड़ा होने पर भी एवं कूट नैतिक वार्ता का धनी होने  के बावजूद राजा होने केलिए आवश्यक अन्य बहुत सारे  गुणों से युक्त नहीं था  राजा  को राज्य के सफल एवं कल्याण करी सञ्चालन हेतु कूट नीति का सहारा लेना आवश्यक होता है किन्तु दुर्योधन मात्र अपने निजी एवं  वैयक्तिक लाभ के कारण कूट निति का सहारा  लेता है I

Saturday, July 3, 2010

shri madbhagvad gita prtham addhyay ...aage

अपर्याप्तं  तदस्माकं बलं भीस्माभिरक्षितम I
पर्याप्तं त्विद्मेसाम  बलम भीमाभिरक्षितम  II १०
अर्थ : हमारी शक्ति अपक्रिमेय है और हम सब पितामह भीष्म द्वारा रक्षित हैं जबकि पांडवों की शक्ति भली भांति संरक्षित होकर भी सीमित है
व्याख्या :स्वाभाविक रूप से अपने को बली मानने वाला  अपनी सेना की विशालता का वर्णन करने वाला ,पितामह की युद्ध कला में निपुणता तथा एवं उनके बल पर पूर्ण विश्वास करने वाला दुर्योधन पांडवों की सेना को कम तर आंक रहा है और उसे भीम द्वारा संरक्षित बता रहा है I पितामह भीष्म और भीम के बल के अंतर को आचार्य के संज्ञान में ला रहा  है दुर्योधन अभिमानी है बली है तथा पराक्रमी है वह कूटनैतिक  संवाद का महारथी है वह जानता है की वृद्ध आचार्य की मानसिक शक्ति कहीं क्म न हो जाये इसीलिए वह कुरु सेना को विशाल एवं अति शक्ति संपन्न बता रहा है वह कुरु सेना को दुर्भेद्य बता रहा है

Friday, July 2, 2010

shri mad bhagvad gita pratham addhyay ...aage...

श्लोक ; अन्ये च बहवा शूरा मदर्थे त्यक्त जीविता  I
          नाना शस्त्र प्र्हरना     सर्वे युद्ध विशारदा II९
अर्थ :  ऐसे अन्य अनेक वीर भी हैं जो मेरे लिए अपना जीवन त्याग करने के लिए उद्यत हैं वे विविध प्रकार के हथियारों से सुसज्जित हैं और युद्ध विद्या में निपुण हैं I
व्याख्या :  दुर्योधन के पक्ष में जयद्रथ कृतवर्मा शल्य आदि बहुत सारे योद्धा हैं जो युद्ध में अपने प्राणों की बाजी लगा कर युद्ध करने की इक्षा को लेकर आये हैं यद्यपि    वे सारे योद्धा  पापी   एवं दुराचारी हैं इसलिए कुरुक्षेत्र  में उनका मृत्यु के मुख में जाना अवश्यम्भावी है तथापि वे सारे के सारे योद्धा दुर्योधन के मित्र भी हैं यही कारण है की उन सभी का समवेत  बल दुर्योधन के बल को बढ़ाये रखता है युद्ध  में प्राणों की  परवाह न करने वाले योद्धाओं  के विषय में दुर्योधन अपने सेना पति को बता कर उनके मन में उत्साह की वृद्धि करता है इस तरह की वार्ता दुर्योधन के कूटनैतिक सूझ बूझ का परिचायक है

Thursday, July 1, 2010

shrimad bhagvad gita pratham addhyay....aage.....

भवान भीश्मश्च  कर्णश्च क्रपश्च समितिंजय : I
अश्वत्थामा विकर्णश्च   सौम्दात्तिश्ताथैव च  II

अर्थ :  द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म   तथा कर्ण और संग्राम जयी  कृपाचार्य एवं  वैसे ही अश्वत्थामा  विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा आदि हैं जो युद्ध में सदैव विजयी रहे हैं .

व्याख्या : पितामह भीष्म देय्वृत  गंगा पुत्र भीष्म राजरिशी  कोटि के हैं एवं भगवान परशुराम से धनुर्वेद की शिक्ष प्राप्त की है जो अमोघ एवं अचूक युद्ध विद्या में अग्रणी माने जाते हैं आचार्य द्रोण तो हैं ही धनुर्वेद के आचार्य महाबली कर्ण भी भगवान परशुराम के शिष्य हैं कृप आचार्य द्रोण का साला है अश्वत्थामा स्वयं महा योद्धा है विकर्ण ध्रतराष्ट्र का  तीसरा पुत्र है सौमदत्त  वहिको के राजासोमदत्त का पुत्र है दुर्योधन  ने जानबूझ कर उन्हें योद्धाओं के बारे में नाम लेकर वर्णन किया जो सामान्यत अजेय माने जाते रहे हैं ऐसा दुर्योधन ने अपने वृद्ध सेनापति आचार्य  द्रोण के उत्साह को बढ़ने के लिए किया. यह दुर्योधन  का कूटनैतिक सूझ बूझ का परिचय देने वाला तरीका है .  अर्थात पांडव पक्ष के अति सजग योद्धाओं के विषय  में बताकर आचार्य  के ह्रदय  में अति सतर्कता का भाव भरना एवं अपने अजेय  योद्धाओं के विषय  में ही वर्णन करना वस्तुत सेनापति के मन में नव उत्साह का संचार करना |

shrimad bhagvad gita pratham addhyay....aage.....

अस्माकं तू विशिष्टा ये  तान्निबोध  द्विजोत्तम  I
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थ   तान ब्रवीम ते II ७
अर्थ हे ब्राम्हण श्रेष्ठ ! अपने पक्ष में भी जो प्रधान हैं उनको आप समझ लीजिए I आपकी जानकारी के लिए मेरी सेना के जो जो सेनापति हैं , उनको बतलाता हूँ I
व्याख्या :  पूर्व श्लोकों में दुर्योधन ने द्रोणाचार्य को पांडु पक्ष के योद्धाओं के विषय में अवगत कराया I  उन्हें भान कराया की पांडु पक्ष में एक से एक विकट योद्धा हैं I   साथ ही उसने उपर्युक्त श्लोक के माद्ध्यम से कौरौ  पक्ष के योद्धाओं एवं महा पराक्रमी तथा युद्ध में कौरुओं के पक्ष में प्राण देने वालेअथवा प्राण लेने वाले  वीरों का भी वर्णन किया क्योंकि यह आवश्यक था की कहीं आचार्य द्रोण यह न समझ ले की कौरौ सेना में योद्धाओं की कमी है  किसी राजा या राज पुत्र का उसके  सेना पति का मनोबल बढ़ाये रखना कूटनैतिक  दृष्टी   से नितांत आवश्यक होता है

Monday, June 28, 2010

shri mad bhagvadgita pratham addhyay ....aage ...

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुन समायुधि I
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथ :      II 4
 अर्थ : 
 इस सेना में भीम और अर्जुन के समान युद्ध करने वाले बहुत से वीर धनुर्धर हैं  यथा महारथी युयुधान विराट तथा
 द्रुपद I
व्याख्या :
  यहाँ पर भीम और अर्जुन के समान तुलना करके अनेको वीरो की युद्ध भूमि में उपस्थित  होने की बात बताई गई है दुर्योधन वस्तुत : भीम और अर्जुन को  अत्यंत बलशाली  समझता है  अत : इसीलिये अन्य वीरो को उनके समान बताता है हालाँकि युद्ध भूमि  में अनेक बलशाली योद्धा है तथापि यहाँ  कुछ अति प्रसिद्द एवं प्रबल योद्धाओं के रूप में युयुधान  विराट तथा राजा द्रुपद का नाम् विशेष   रूप से उद्घृत किया गया है I
धर्स्त्केतुश्चेकितान: काशिराजश्चवीर्यवान    I   
 पुरुजित्कुन्तिभोजश्च  शैव्यश्च  नर पुंगव :  II  5
अर्थ :   इनके साथ ही ध्रस्त केतु    चेकितान काशिराज और पुरुजित कुन्तिभोज और शैव्य जैसे महान बलशाली  योद्धा भी हैं 
युधामन्युश्च विक्रांत उत्तमौजाश्च    वीर्यवान  I
 सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महा रथ :        II6
अर्थ :  पराक्रमी युधामन्यु  अत्यंत बलशाली उत्तमौजा  सुभद्रा का पुत्र अभिमन्यु  तथा द्रौपदी के पांच   पुत्र  ये सभी महा रथी हैं 
व्याख्या : श्लोक ४, ५ ६मे दुर्योधन अपने आचार्य द्रोण को पांडु पक्ष के वीरो  का वर्णन  कर रहा है साथ ही  इन बहुत सारे  वीरो की तुलना  वह मात्र भीम और अर्जुन से कर रहा है आशय यह है की वह आचार्य को  ध्रस्त्द्युम्न   द्वारा बनाये ब्यूह में सम्मिलित योद्धाओं का सम्यक एवं स्पस्ट परिचय दे रहा है ताकि सेनापति द्रोण समझ सकें की प्रति पक्ष में हमें किस तरह के योद्धाओं से चार चार हाथ करने हैं युद्ध में योद्धा का रण  ज्ञान एवं रणनीति अत्यंत आवश्यक है यद्यपि  यह कार्य सेनापति का होता है की युद्ध विषयक  व्यवस्था की कमान स्वयं अपने हाथ में रखे एवं तदनुसार  कार्यवाही हेतु तत्पर रहे तथापि दुर्योधन को अपने वृद्ध गुरु आचार्य द्रोण कोयुद्ध क्षेत्र की  विहंगम जानकारी देना आवश्यक लगता हैI              


Thursday, June 24, 2010

shrimad bhagvadgita addhyay pratham...aage....

पश्यैताम पाण्डु पुत्रानामाचार्य  महती  चमूम I
 ब्यूढाम द्रुपद पुत्रेण तव शिष्येण धीमताम    II  ३
अर्थ  हे आचार्य पांडु पुत्रों की विशाल सेना को देखें जिसे आपके बुद्धिमान शिष्य एवं द्रुपद के पुत्र ने इतने कौशल से ब्यवस्थित किया
व्याख्या:  इस श्लोक में द्रुपद पुत्रेण आया है, महाराजा द्रुपद एवं आचार्य द्रोण बचपन के मित्र थे I बाद में उन दोनों महा पुरुषों में सत्तामद एवं ज्ञान मद के कारण विवाद उत्पन्न हो गया  जिस कारण उनमे एक दुसरे के प्रति आतंरिक वैर पनप गया द्रुपद  राज ने महान धनुर्धर आचार्य से बदला लेने के कारण पुत्र काम यज्ञं    कराया  जिससे उन्हें द्रोपदी एवं द्रिस्त्द्युम्न  प्राप्त हुए I ये  पुत्र एवं पुत्री शिक्षा दीक्षा हेतु आचार्य द्रोण के आश्रम   भेजे गए  आचार्य ने बिना किसी भेदभाव के द्रिस्त्द्युम्न को समस्त धनुर्वेदीय रहस्यों से परिचित कराया एवं व्यूह रचना में निष्णात  करा दिया  वह व्यूह रचना में आचार्य के बाद सबसे  अधिक कुशलता प्राप्त धनुर्धर था
अत : इस बात को द्रोण को स्मरण होना चाहिये की जो  व्यूह पांडवों की सेना में बना है वह उसके शिष्य एवं परम शत्रु द्रुपद के पुत्र ने बनाया है  यह वास्तव में दुर्योधन का कूटनैतिक सन्देश  है अपने गुरु के लिए की कहीं गुरु शिष्य के मोह जाल  में न फंस 
जाये I  अत : दुर्योधन ने उन्हेंअपने   सेनापति  होने के कर्तव्यों  को स्मरण कराया एवं भावनाओं से तिरोहित होने दिया I

Thursday, June 17, 2010

shri mad bhagvadgita addhyay pratham aage......

द्रस्त्वा तू पन्दवानीकम   व्यूढं दुर्योधनस्तदा I
आचार्यमुप संगम्य राजा वचनमब्रवीत II    2 
हे राजन पांडु पुत्रों द्वारा सेना की व्यूह रचना देख कर राजा दुर्योधन अपने गुरु के पास गया और उसने ये शब्द कहे I
  व्याख्या :ध्रतराष्ट्र    जो अत्यंत मोहान्ध एवं बहिर्नेत्रंध   तथा मात्र अपने पुत्रों विशेषकर अपने पुत्र दुर्योधन  का ही हित लाभ सोचता था I   उसने प्रथम श्लोक में वर्णित अपनी इक्षा व्यक्त की वास्तव में  यह जानने की, कि इस युद्ध  क्षेत्र कुरुक्षेत्र में (जो युद्ध   कि इक्षा सेआये  थे वस्तुत : ) मेरे पुत्र  विरत तो नहीं हो गए अत ;:उसने सर्व प्रथम अपने पुत्रों के विषय में जानना चाहा तत पश्चात पांडु पुत्रों के विषय में .I   युद्ध  का सजीव दर्शन  करने एवं वैसा ही आँखों देखा हाल बताने वाले संजय ने बड़ी चतुराई से ध्रतराष्ट्र    कि भावना एवं उनकी आत्यंतिक इक्षा को परखा तदनुसार उनहोंने प्रथमतः दुर्योधन के नेतृत्व का ज्ञान राजा को दिया I     उनहोंने कहा कि दुर्योधन ने बहुत सावधानी पूर्वक पहले पांडवों कीव्यूह रचना को देखा ,समझा   तत्पश्चात वह आचार्य द्रोण जो कौरुव सेना के सेना पति हैं उन्हें उनका ध्यानाकर्सित  कराया संभवतः अपने राजकुमार होने का दायित्व निभाया और स्वयं जाकर आचार्य  द्रोण से मिले ताकि आचार्य  अपनी रक्षा एवं आक्रमण सम्बन्धी चुनौतियों को समझें . इस तरह दुर्योधन ने एक कूटनीतिक गाम्भीर्य का परिचय दिया जिसमे वस्तु स्थिति के आधार पर  पात्रता के परिवर्तित होने का गुण सिद्ध होता है
अंतरजाल पर शुद्ध श्लोक लिख  पाना बहुत कठिन है अत : कृपया क्षमा करें I

Wednesday, June 9, 2010

shri mad bhagvad gita addhyay pratham

धर्म  क्षेत्रे कुरुक्षेत्रे सम वेता युयुत्सव :I
मामका :पान्दवाश्कैव   किम कुरवत संजय ;II   1
अर्थ:हे संजय जब मेरे और  पांडु के पुत्र धर्म के क्षेत्र कुरुक्षेत्र में युद्ध करने की इक्षा से एकत्र हुए .तब उनहोंने क्या किया I
व्याख्या :वह धर्म क्षेत्र  था I वह कुरुक्षेत्र था I  धृत राष्ट्र   ने बड़ी आशा से संजय  से पूंछा कि मेरे अर्थात कुरु पुत्र  और पांडु अर्थात पाण्डु के पुत्र  जो युद्ध में एक दूसरे को जीतने के लिए एकत्र हुए , उनको संजय द्वारा आँखों देखा हाल जानने कि इक्षा व्यक्त की  द्रतरास्त्र ने बड़े विश्वास के साथ इस क्षेत्र को कुरुक्षे कहा I (चूंकि वह कौरवों का क्षेत्र था तथा धृत राष्ट्र   राजा था पांडव राज्यचुत थे , अत: कौरवों के आधिपत्य  को सतत स्थापित करने हेतु बर्वश ही उस क्षेत्र को कुरुक्षेत्र कि संज्ञा दी और उसे पहले धर्म क्षेत्र कहा I बाद में कुरुक्षेत्र यद्यपि  जो  धर्मक्षेत्र  कहा गया बहुधा विसंगतियो  का पर्याय रहा  I  बहुत से ऐसे उदाहरण  उस धर्मक्षेत्र  कुरुक्षेत्र  के द्रस्तव्य हुए जिनके कारन कुरुक्षेत्र  को धर्मक्षेत्र मानने में विपर्याय  कि स्थिति बनीI
कुरुक्षेत्र जैसे युद्धक्षेत्र  को    धर्म क्षेत्र  मानने में विभ्रम उत्पन्न होता है एकल द्रस्टया यह   वाक्छल प्रतीत होता है ...लेकिन नहीं I भगवान कृष्ण  द्वैपायन व्यास   ने ,जिन्होंने महाभारत का प्रणयन  किया  उनहोंने भगवान परम योगेश्वर परात्पर ब्रम्ह्    वासुदेव के उपदेशों को सार्थक शब्द दिए वे पूर्णतया :सत्य  पर आधारित थे यद्यपि  सत्य  का अवगाहन इतना सरल एवं उथला नहीं कि अल्प प्रयास में सुलभ हो सके ..... अस्तु धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे से आरंभ होने वाली इस ब्रम्ह वाणी का आरंभ अत्यंत  अर्थ पूर्ण है
ओह्म परमात्मने नम:

Sunday, June 6, 2010

do shabd...

ओह्म परमात्मने नमः

पंचाननं  मरुत मतंग्गाजानाम नागान्तिकम  पुंगव पन्न्गानाम 
नागढ़िपारचित  भासुर कर्नफूलम वाराणसी पुर पतिम भज विश्व नाथं

इस परम पवित्र ग्रन्थ कि अर्थ सहित व्याख्या करने के पूर्व देवाधिदेव महादेव एवं गौरी गणेश कि स्तुति करता हूँ. क्यों कि मैं  अकिंचन अपने भावों एवं विचारों  को बिना महादेव कि शरण में रह कर अपने आपको निरीह समझता हूँ. परम परात्पर अकारण करुना वरुनालय परब्रम्ह साकार विग्रह वासुदेव भगवान के श्री मुख से निस्रत वाणी का अपनी भाषा  एवं भाव में वर्णन करने हेतु समस्त देवी देवताओं से प्रार्थना करता हूँ . मेरे इस प्रयास से यदि संसार का एक भी प्राणी लाभ ले पाया तो मैं  उसका कर्जदार रहूँगा.  मेरे मन में समानता, सदाचार, समाजवाद एवं विश्व में प्रचलित हर धर्म एवं संस्कृति के प्रति अगाध श्रद्धा का भाव है तथापि जैसे बालक की एक ही माता होती है एवं एक ही पिता होता है इस आधार  से यह रामकिशोर द्विवेदी सनातन धर्मावलम्बी वस्तुतः अपने मानव होने का धर्म निभा रहा है. संसार का वह प्रत्येक प्राणी जो हिंदी भाषा  जानता हो इस ब्लॉग के माध्यम  से मेरी आलोचना या  समालोचना करने के लिए आमंत्रित है.   चाहते हुए भी कुछा कठिन संस्कृत के शब्द या श्लोक इन्टरनेट पर हिंदी टाइपिंग कि अच्छी सुविधा न होने के कारन त्रुटियाँ हो सकती है चूंकि मैंने हिंदी में ही संपूर्ण सात  सौ श्लोक  लिखने एवं उनका शब्दार्थ तथा व्याख्या लिखने का मन बनाया है तो उस नाते राज भाषा  धर्मं का भी निर्वाह हो जायेगा. जैसा कि आप  सभी जानते हैं  कि बिना राष्ट्र  धर्म के निर्वाह के न तो वैयक्तिक धर्मं का निर्वाह संभव है और न ही मानव धर्म का निर्वाह  कर पाना संभव है. अतः जय भारत, जय भारती कहते हुए राष्ट्र  ध्वज, राष्ट्र  गान  एवं हिंदी राज भाषा  (राष्ट्र भाषा  होने की आशा  में) का सम्मान करते हुए समस्त भारतीय भाषाओं एवं विश्व वांग्मय को भी मान  देते हुए अगले ब्लॉग से अपना भाव रखने का प्रयास करूंगा. 

परमात्मने नमः

Wednesday, June 2, 2010

भारतीय दर्शन के विद्वानों के प्रति नम्र निवेदन



विनम्र निवेदन है की हम चाहते हुए भीशायद शुद्ध श्लोक नहीं लिख पायें कारण यह है की अंतर्जाल की टंकण व्यवस्था हमें संस्कृत में पूर्णतया शुद्ध लिख पाने को मजबूर करती हैतथापि हमारा प्रयास होगा की हम संस्कृत एवं हिदी में श्रीगीता की व्याख्या सरल शब्दों में कर पायें हिंदी भाषा संसार में बसे करोंड़ों लोगों तक अपनास्थान बना चुकी है ऐसे में विश्व के उन तमाम भगवद चरनानुरागियो तक शब्दों की अपनी सेवा दे पाए यही हमारा लक्ष्य है हम विद्वान् नहीं है ज्ञानी नहीं हैं अति बुद्धिमान नहीं है मात्र भगवद गीता की शरण में रह कर जो मन में आया या आगे भी जो आयेगा उसे संपूर्ण मानव मात्र के लिए सेवा करने का प्रयास करूंगा कृपया आप सभी से हमारा विनम्र अनुरोध है की आप सभी लोग हमारे ब्लॉग को पढ़ें एवं उस पर अपनी प्रतिक्रिया अवस्य दें
संपूर्ण संसार में श्रीमद्भागवद्गीता में श्रद्धा रखने वाले एवं विश्वास करने वाले सुधीजन हमारे विचार जान सकें श्री मद भगवद्गीता अनंतज्नान का भंडार लिए है जिसमें हजारों आचार्यों महापुरुषों विद्वानों साधू संतों सन्यासियों दर्शिनिकों ने हर काल स्थान पात्रता एवं परिस्थित्ति के आधार पर भाष्य किये विचार प्रस्तुत किये एवं प्रवचन तथा सत्संग आदि में जन सामान्य का अत्यंत भला कियासनातन धर्म के पर्मचार्यों जैसे अदि शंकराचार्य रामानुजाचार्य वल्लाबहचार्य निम्बार्काचार्य आदि ने अपने अपने दर्शन एवं चिंतन से प्रस्थान त्रयी का भाष्य कियावेदांत   मेंनिष्णात     विद्वान् जानते हैं की प्रस्थान त्रयी का तात्पर्य श्रीमद्भागवद्गीता ब्रम्हासूत्र एवं उपनिखदों का सम्पूर्णता के साथ भाष्य मानव समाज को उपलब्ध करना होता है प्रतिष्ठा सम्पन्न आचार्य अपने अपने ढंग से उक्त ग्रंथों का अभिनव भाष्य करताहै तत्पश्चात विश्व मानव की मंगल कामना एवं लोक कल्याण के लिए लोकार्पण करता है 
मैं न तो आचार्य हूँ न ही संत मैं एक आम आदमी हूँ एक बाल बच्चो दार  एक भीड़ में खोया एवं नौकर पेशा आदमी मुझे उम्मीद है की श्री मद भगवद गीता पर लिखा जाने वाला यह ब्लॉग आपलोगों को अपने बीच के ही किसी साथी से बात चीत करने जैसा लगेगा जिस गीता शाश्त्र को भगवद पद आदि शंकराचार्य ब्रम्हानिष्ठ परकम हंस ने की हो उसे मेरे जैसा आम इन्सान कुछ लिखने का साहस करे तो यह उस परम पुरुस की ही कृपा मानिये 
हमारी यह अर्चना महादेव को समर्पित है इदन्नमम