Tuesday, April 18, 2023

 

अथ त्रतीयो अद्ध्याय ( अद्ध्याय तीन)

                                       अर्जुन उवाच

 (ग्यान योग और कर्म योग  के अनुसार अनासक्त भाव   से नियत कर्म करने  की स्रेष्ठता  का निरूपण)

                      ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।

                    तत्किम्  कर्मणि  घोरे मा नियोजयसि केशव ॥(3-1)

अर्थ --- अर्जुन बोले हे जनार्दन !  यदि आपको कर्म की अपेक्षा ग्यान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर  हे केशव! मुझे भयंकर कर्म मे क्यों लगाते हैं ?

                    व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुधिं  मोहयसीव मे ।

                    तदेकम् वद  निश्चित्य  येन श्रेयोSहमाप्नुयाम्॥(3-2

अर्थ  --- आप मिले हुये से वचनो से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं
 इसलिये आप उस एक बात को निश्चित कर के कहिये  जिससे मै कल्याण को प्राप्त  हो जाऊं।

 

 

                                    श्री भगवान उवाच

    लोकेSस्मिंद्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।                                                                                    ग्यान योगेन सांख्यानाम्     कर्मयोगेन योगिनां ।(3-3)

   अर्थ--- श्री भगवान बोले --- हे निष्पाप इस लोक मे दो प्रकार की निष्ठा          मेरे द्वारा पहले कही गयी है  । उनमे से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ग्यान योग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से  होती है 

                     न कर्मणामनारम्भानैष्कर्म्यं    पुरुषोSष्नुते।

                    न च सन्यसनादेव  सिद्धिम्   समधिगच्छति ॥(3-4)

अर्थ--- मनुष्य न तो कर्मो का आरंभ  किये बिना निष्कर्मता को यानि योग निष्ठा को प्राप्त होता है  और न केवल कर्मो  के त्याग मात्र से सिद्धि यानी सांख्य निष्ठा को ही प्राप्त होता है।

                 न हि कश्चित्क्षणमपि  जातु तिष्ठत्यकर्मक्रत्।

                 कार्यते  ह्यवश:कर्म     सर्व: प्र्क्रतिजैर्गुणै: ॥(3-5)

अर्थ--- निस्संदेह कोई भी पुरुष किसी भी काल मे क्षण मात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता ; क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय  प्रक्रति जनित गुणो द्वारा परवश हुआ  कर्म करने के लिये बाद्ध्य किया जाता है ।

 

                 कर्मेंद्रियाणिसन्यम्य   य आस्ते  मनसा स्मरन्।

                इंद्रियार्थांविमूढात्मा  मिथ्याचार:      स उच्यते॥(3-6)

अर्थ – जो मूढ बुद्धि मनुष्य  समस्त इंद्रियों  को हठ पूर्वक ऊपर से रोक कर  मन से उन इंद्रियों के विषय का  चिंतन करता रहता है वह मिथ्याचारी   अर्थात दम्भी कहा जाता है ।

 यस्त्व इंद्रियाणि मनसा नियम्यारभतेर्जुन ।

कर्मेंद्रियै: कर्मयोगमसक्त:     स विशिष्यते ॥(3-7)

   किंतु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इंद्रियों को वश मे कर के  अनासक्त हुआ  समस्त इंद्रियों द्वारा कर्म योग का आचरण करता है , वही श्रेष्ठ है।

             नियतं कुरु कर्म त्वम् कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।

             शरीरयात्रापि     ते     प्रसिध्येदकर्मण:  ॥(3-8)

अर्थ --- तू शास्त्र विहित कर्तव्य कर्म कर ; क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना   श्रेष्ठ है  तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा ।

 

व्याख्या   --- श्री मद्भगवद गीता के तीसरे  अद्ध्याय के आरम्भिक 1 से लेकर 8 श्लोकों मे  ग्यान योग और कर्म योग  के अनुसार अनासक्त भाव   से नियत कर्म करने  की स्रेष्ठता  का निरूपण किया गया है ।अद्ध्याय दो मे भगवान ने आत्मा की अमरता का उपदेश किया । इसी के साथ सांख्य योग   का उपदेश किया  । जिस समय अर्जुन सगे सम्बंधियों को देख कर अत्यंत ममता मोह के कारण विषाद उक्त हो गया था । कुरुक्षेत्र के समरांगण मे जहाँ उसके ताऊ,  चाचा , भाई, भतीजे एवम अन्य बहुत सारे वंश परिवार के लोग  युद्ध के लिये लिये तैयार थे । वे सब आपस मे  मार काट के लिये तत्पर  और अपनी अपनी जीत के लिये आशा वान  और  आतुर  थे। ऐसे मे श्री भगवान को  अर्जुन का मोह दूर करना ही था । तभी तो उन्हों  ने अर्जुन  को आत्मा की नित्यता, अमरता  और कभी किसी भी काल मे अपरिवर्तनीय शुद्ध, बुद्ध सत्ता होने का उपदेश  दिया  ।सांख्य का उपदेश अंतरात्मा का उपदेश है । यह ग्यान योग है । अर्जुन को जब भगवान ने युद्ध के लिये आदेशित किया और कहा  तू  निश्चय   ही युद्ध कर । तब  अर्जुन ने  अत्यंत विपर्यय की स्थिति मे श्री भगवान से कहा कि हे जनार्दन यदि आपको कर्म की अपेक्षा ग्यान  श्रेष्ठ है तो आप मुझे  भयंकर कर्म  मे क्यों लगाते हैं  ।हे भगवान आप कभी ग्यान योग तो कभी कर्म योग  को अच्छा बताते हैं ।आप मिले जुले वचनो से मेरी बुद्धि को मोहित करते हैं। अत: मेरे लिये जो अत्यंत कल्याण कारी हो ऐसा आदेश मुझे दीजिये ।भगवन जिससे मेरा कल्याण हो उस एक बात को निश्चित  होकर कहिये।

 

 श्री भगवान बोले --- हे निष्पाप! यह ग्यान और कर्म योग का आचरण यानी ये दोनो प्रकार की  निष्ठा पहले ही मेरे द्वारा कही गयी है ।

 

मनुष्य कर्मो का आरम्भ किये बिना  निष्कर्मता को प्राप्त नहीं कर सकता है यानी योग निष्ठाको नहीं प्राप्त कर सकता है  । और दूसरी तरफ  कर्मो के केवल त्याग मात्र से सिद्धि यानी सांख्य निष्ठा की प्राप्ति नहीं हो सकती है।

 

 अब सुन अर्जुन ! सांख्य योग की निष्ठा तो ग्यान योग से है अर्थात  माया से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणो मे बरतते हैं  । मन  इंद्रिय और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं मे कर्तापन के अभिमान से रहित  होकर सर्व व्यापी सच्चिदानंद घन  परमात्मा मे एकी भाव से स्थित होने  का नाम ग्यान  योग है। इसी को  सन्यास  सांख्य योग आदि नामो से कहा गया है।

 

फल और  आसक्ति को त्याग कर  भगवदाग्यानुसार  केवल भगवदर्थ समत्व  बुद्धि से  कर्म करने का नाम  निष्काम  कर्म योग है । इसी को समत्व योग  बुद्धियोग ,  कर्मयोग  .तदर्थ कर्म ,  मदर्थ कर्म,   मत्कर्म   आदि  नामो से  कहा गया है ।

 

जिस  अवस्था को प्राप्त हुए पुरुष के कर्म  अकर्म हो जाते हैं।  अर्थात  फल उत्पन्न नहीं  कर सकते  उस अवस्था का नाम निष्कर्मता है ।

 

वास्तव मे प्रक्रति जनित गुणो द्वारा परवश हुआ  मनुष्य कर्म करने को बाद्ध्य होता है ।अर्थात  सतो गुण ,  रजो गुण,  तमो गुण , ही मनुष्य को कर्म करने के प्रेरणा देते हैं। अर्थात   यह प्रक्रति ही  मनुष्य को एक तरह से कर्म करने को बाद्ध्य  करती है ।यही कारण है कि चाहते हुए  भी कोई   मनुष्य किसी भी काल  मे बिना कर्म किये नहीं रह सकता ।

 

आगे फिर कहा गया है कि इंद्रियों को ऊपर से रोककर अंदर से विषयों का चिंतन  करने वाला  मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है ।  इस विषय का वर्णन  दूसरे अद्ध्याय के  स्थित प्रग्य सम्बंधी वर्णन मे इंद्रिय निग्रह  पर जोर दिया गया है ।

 भगवान कहते हैं अपने इंद्रियों पर नियंत्रण करके जो मनुष्य  कर्म योग  का  आचरण अनासक्त भाव से  करता है । वही श्रेष्ठ है ।

 

भगवान कहते हैं कि तू शास्त्र सम्मत अर्थात जो धर्म ग्रंथों मे बताये गये कर्तव्य  कर्म हैं . उन्हे कर    क्योंकि कर्म    करने  की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है । श्री भगवान  अत्यन्त   स्पष्ट शब्दों मे अर्जुन से  कहते हैं कि बिना कर्तव्य कर्म  के तेरा शरीर  निर्वाह भी नहीं चलेगा ।उपर्युक्त आठ श्लोकों मे श्री क्रष्ण भगवान ने अर्जुन के माद्ध्यम से सम्पूर्ण मानव जगत को कर्म का पाठ पढाया। अनासक्त भाव से किये गये कर्म अंतत: ग्यान मे भष्म होते हैं जो प्राणी की अंतत: मुक्ति के हेतु हैं । ग्यान योग और कर्म योग  के अनुसार अनासक्त भाव   से नियत कर्म करने  की स्रेष्ठता  का निरूपण अद्ध्याय 3  विषयक यह व्याख्या  इस अकिंचन द्वारा प्रस्तुत  की जाती  है।

श्री हरि शरणं

सादर

राम किशोर द्विवेदी

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Saturday, April 15, 2023

स्थिर बुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा

      स्थिर बुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा

व्याख्या ---- श्री मद्भगवद्गीता अध्याय 2 के श्लोक संख्या 54से 72 तक 18 श्लोकों मे स्थितप्रग्य पुरुष के विषय मे श्री क्रष्ण भगवान ने अत्यंत गम्भीर वर्णन किया है ।स्थितप्रग्य होना अर्थात अपने स्व मे होना यानी परमात्म तत्व मे विचरण करना । इस विषय की यह अकिंचन  व्याख्या करने का प्रयास कर रहा है ---- अर्जुन पूछते हैं कि हे केशव   जो पुरुष समाधि कि स्थिति को प्राप्त होते हैं या परम हंस की अवस्था को प्राप्तहोते  हैं ऐसे स्थितप्रग्य महा पुरुष कैसे पहचाने जाते हैं।  उनका बैठना , बोलना और चलना किस प्रकार का होता है अ र्थात उनका आचरण कैसा होता है । ऐसे महापुरुष किस तरह की  विशेष वाणी व्यहवार ,कार्य कलाप अथवा विशिष्ट कार्य शैली अथवा  वाणी के द्वारा सामान्य मनुष्यों से अलग समझे जाते हैं।

तब श्री भगवान ने कहा --  हे अर्जुन ऐसे महा पुरुष अपनी सम्पूर्ण कामनाओं का त्याग करके आत्मा से आत्मा मे ही रमण करते हैं  यहाँ आत्मा का आत्मा से ही संतुष्ट रहने के विषय मे कहा गया है ।यह अत्यंत रहस्य मय है । यह परम हंस की अथवा समाधि के पार पहुंचे पुरुष की स्थिति  होती है।

दु;ख प्राप्ति मे जिसका मन उद्वेलित न हो सुख मे हर्षित न हो  जिसके राग , भय,क्रोध नष्ट होगये हों। यह परमावस्था को प्राप्त पुरुष के लक्षण हैं। ऐसा पुरुष शुभ - अशुभ की प्राप्ति मे दु:खी - सुखी नहीं होता है ।ऐसा पुरुष इंद्रियों के विषयों से अपनी इंद्रियों को हटा लेता है ।जैसे कछुआ  विपरीत परिस्थिति मे अपने अंगो को  समेट लेता है ।इंद्रियों का अपने विषयों से अलग करने के लिये कछुए का उदाहरण दिया गया है ।इंद्रियों का विषयों से हटने से ही मात्र काम नहीं  बनता । वास्तव मे विषयों  से आसक्ति हटाये बिना काम नही चलता।ऐसे मे  स्थितप्रग्य पुरुष की आसक्ति भी नष्ट होजाती है ।अगर विषयों से आसक्ति न हटे तो ये प्रमथन स्वभाव वाली इंद्रियां बुद्धिमान  व्यक्ति के मन का भी हरण करलेती हैं ।इसलिये साधना मे लगा हुआ पुरुष भगवान का ध्यान करते हुए मन से विषयों की आसक्ति हटाये ,  क्योंकि जिस पुरुष की इंद्रियां वश मे होती हैं,  उसी की बुद्धि स्थिर होती है ।

 

अब विशेष बिंदु यह है कि मनुष्य के उत्थान या पतन का मूल कारण उसका ध्यान है। शुभ या अशुभ  का ध्यान ।वास्तव मे  उत्थान और पतन का कारण व्यक्ति मात्र का अच्छा या बुरा चिंतन है । यह इस प्रकार  है --- विषयों के ध्यान से विषयों की आसक्ति होती है , आसक्ति से उन्हे प्राप्त करने की कामना तीव्र होती  है  । कामना मे जब बाधा उत्पन्न   होती है ,  तो फिर क्रोध उत्पन्न होता ह।
  क्रोध उत्पन्न होने से मूढता का भाव पैदा होता है। जब मूढ भाव उत्पन्न होता है तब स्म्रति मे भ्रम होता है अर्थात व्यक्ति को यह समझ मे नहीं आता कि हम किस के साथ
? कब?  कैसा ? और किसलिये ? कौन सा ? आचरण करने लगते हैं ।बात-  व्यवहार वाणी – सम्बंध  छोटा-  बडा ,नैतिक -  अनैतिक आचरण,  कुल - मर्यादा , वंश - परम्परा ,  आदर्श   आदि की स्म्रति नहीं रहती  । जब स्म्रति का नाश होजाता है तब बुद्धि  का नाश तय है। बुद्धि यानी ग्यान शक्ति का नाश हो जाने पर व्यक्ति अपनी मानवीय  ऊंचाइयों से गिर जाता है अर्थात उसका सर्वथा  पतन हो जाता है ।इसका मतलब यह है के विषयों का चिंतनअंतत: आचरण को कुत्सित करने वाला होता है ।

 

स्थित पुरुष , जिसने अपने अंत: करण को वश मे कर लिया है , ऐसा महा पुरुष जिसने  राग - द्वेष से रहित  अपने मन सहित इंद्रियों को वश मे किया है वह विषयों  मे विचरण करता हुआ भी आनंद मे रहता है ।क्योंकि वह विषयों का चिंतन नहीं करता ।अंत: करण की प्रशन्नता होने के कारण उसके सम्पूर्ण दु:ख नष्ट हो जाते हैं और वह योगी शीघ्र परमात्मा मे ही स्थिर होजाता है।

 

जिसका मन  और  इंद्रियां जीती हुई  नहीं हैं । उस पुरुष की बुद्धि निस्चयात्मिका(निर्मल मति अर्थात सत्य का निर्णय  करने वाली बुद्धि )नहीं होती और उसमे भावना का अभाव होता है । भावना हीन पुरुष को शांति नहीं मिलती  और अशांत पुरुष  को सुख नहीं मिलता ।

 

जैसे नाव की दिशा वायु तय करती है अगर नाविक के हाथ मे पतवार नहो हो तो ।ऐसे ही विषयों की अधीन  जब इंन्द्रियां  हो जायें तब मन जिस इंद्रिय के साथ होगा ऐसे मे  एक अकेली इंद्रिय ही  मनुष्य की बुद्धि का नाश करदेती है।   इसीलिये इंद्रियों का निग्रह ही पुरुष की बुद्धि को स्थिर रखती है ।

 

 जब सब सांसारिक प्राणी सोते हैं अर्थात जडता मे होते हैं, निद्रा मे होते हैं,   तब   स्थितप्रग्य पुरुष  जागता है और जब दुनियांदारी मे फंसे , उलझे , लोग जागते हैं तब नित्य ग्यान स्वरूप  योगी सोता हैअर्थात वह भौतिक प्राप्तियों से विरत होता है । अर्थात भौतिक जगत मे धन ,सम्पदा, लोक कीर्ति और द्र्व्य के अर्जन मे लोग जुटे रहते हैं तब योगी उन सबसे विमुख होकर परमात्मा  के चिंतन, ध्यान मे लगा होता है  ।

 

 श्री भगवान ने समुद्र के विषय मे कहा कि  जैसे संसार की समस्त नदियां समुद्र मे समा जाती हैं लेकिन सागर निस्चल रहता है अर्थात अपनी मर्यादा नहीं छोडता , तट नहीं लांघता। ऐसे ही सम्पूर्ण भोग  स्थित प्रग्य पुरुष मेबिना किसी विकार उत्पन्न किये समा जाते हैं ।तभी ऐसा सन्यमी आत्म वेत्ता ग्यानी पुरुष  विषयों के प्रति तटस्थ रहता हुआ परमानंद के आनंद को प्राप्त करता है ।

जो मनुष्य कामना,  ममता और अहंकार का त्याग करता है और कामनाओं रहित जीता है । वह परम शांति को प्राप्त होता है।श्री भगवान  अर्जुन से कहते हैं कि यही परम स्थिति है। ऐसा योगी मोह जाल मे नहीं फंसता । अंत काल मे वह परम स्थितप्रग्य योगी ब्राम्ही स्थिति को प्राप्त करता है ।

सम्प्रति स्थितप्रग्य पुरुष  विषयक  अद्ध्याय 2 (54से72 तक) 18श्लोकों  कीव्याख्या पूर्ण होती है । हरि शरणम्।

                सादर रामकिशोर द्विवेदी

 

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Sunday, April 9, 2023

                                                           तस्माद्यस्य महाबाहो  निग्रहीतानि   सर्वश:।

                                                           इंद्रियाणिंद्रियार्थेभ्यस्तस्य  प्रग्या  प्रतिष्ठिता ॥(68)

अर्थ----        इसलिये हे महाबाहो! जिस पुरुष की इंद्रियां     इंद्रियों के विषयों से   सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर  है । 

                                                          या निशा सर्व भूतानाम् तस्याम् जागर्ति सन्यमी।

                                                           यस्याम्  जाग्रति  भूतानि  सा निशा पश्यतो मुने:  ॥(69)

अर्थ ----  सम्पूर्ण प्राणियों के लिये जो रात्रि के समान है ,  उस नित्य ग्यान स्वरूप परमानंद की प्राप्ति मे  स्थितप्रग्य योगी जागता है   और जिस नाश वान सांसारिक सुख  की प्राप्ति मे सब प्राणी जागते  हैं, परमात्मा के तत्व को जानने वाले मुनि के लिये  वह रात्रि  के समान है ।

                                                              आपूर्यमाणमचल प्रतिष्ठं  -- 

                                                              समुद्र माप: प्रविशंति यद्वत् ।

                                                               तद्वत्कामा  यं  प्रविशंति  सर्वे 

                                                               स शांतिमाप्नोति   न  कामकामी ॥(70)

अर्थ --- जैसे नाना नदियोंके  के जल सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र मे  उसको  विचलित न करते ही समा जाते हैं , वैसे ही सब भोग स्थित  प्रग्य पुरुष मे  उसको विचलित न करते ही समा जाते हैं ।

                                                                विहाय कामान्य: सर्वांपुमांश्चरति निस्प्रह: ।

                                                                निर्ममोनिरहंकार: स शांतिमधिगच्छति ॥(71)

अर्थ-- जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं  को त्याग कर ममतारहित , अहंकार रहित और स्प्रहा रहित हुआ विचरता है , वही शांति को प्राप्त  होता है अर्थात वह शांति को प्राप्त है ।

                                                                एषा  ब्राम्ही स्थिति:  पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।

                                                                स्थित्वास्यामंतकाले Sपि   ब्रम्हनिर्वाणम्रच्छति   ॥(72) 

                                                ओ3म   तत्सदिति     श्री मद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु         ब्रम्हविद्यायाम्  

                                                                योग शास्त्रे  श्रीक्रष्णार्जुनसम्वादे   सांख्य योगो 

                                                                              नाम द्वितीSयो :द्ध्याय :  ॥ 

Saturday, April 8, 2023

                                                    रागद्वेषवियुक्तैस्तु   विषयानिंद्रियैश्चरन ।

                                                   आत्मवश्यैर्विद्धेयात्मा  प्रसादमधिगछति ॥ (64)

अर्थ ---- परंतु अपने अधीन किये हुए अंत:करण वाला साधक अपने वश मे की हुई, राग द्वेष से रहित इंद्रियोंद्वारा  विषयों मे  विचरण करता हुआ अंत;करण की प्रशन्नता को प्राप्त होता है ।

                                                   प्रसादे   सर्व दु; खानां  हानिरस्योपजायते।

                                                   प्रशन्नचेतसो   ह्याशु        बुद्धिपर्यवतिष्ठते ॥(65)

अर्थ --- अंत:करण की प्रसन्नता होनेपर इसकेसम्पूर्ण दु:खोंका अभाव होजाताहै और उस प्रशन्नचित्त वाले योगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हट कर  एक परमात्मा मे ही भली भांति स्थिर हो जाती है।

                                                   नास्तिबुद्धिर्युक्तस्य न चायुक्तस्यभावना।

                                                   न चाभावयत: शांतिरशांतस्य कुत:: सुखम्॥ (66)

अर्थ---  न जीते हुए मन और इंद्रिओं वाले पुरुष मे  निश्चयात्मिका बुद्धि नहींहोती और   उस अयुक्त पुरुष के अंत;करण मे  भावना भी नहीं होती और उस भावना विहीन मनुष्य को शांति नही मिलती और शांति रहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है ?

इंद्रियाणां हि चरतां  यन्मनों S नुविधीयते ।

तदस्य हरति प्रग्याम् वायुर्नावमिवाम्भसि ॥(67)

अर्थ --- क्योंकि जैसे जल मे चलने वाली नाव को वायु हर लेती है , वैसे ही विषयो मे  विचरती हुई इंद्रियो मे से  मन   जिस इंद्रिय के साथ रहता है वह एक ही इंद्रिय इस अयुक्त पुरुष कीबुद्धि को हर लेती है।


                                                         विषया विनिवर्तंते  निराहारस्य  देहिन: । 

                                                         रसवर्जं रसोSप्यस्य  परम् द्रष्ट्वा     निवर्तते  ॥ (59)

अर्थ ‌‌‌‌‌‌‌‌--- --   इंद्रिओं के द्वारा विषयों को ग्रहण  करने  वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निव्रत हो जाते हैं परंतु  उनमे रहने वाली आसक्ति  निव्रत नहींहोती। इस स्थितप्रग्य पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके  निव्रत हो जाती है।

                                                           यततो ह्यपि कौंतेय प्रुरुषस्य विपश्चित:। 

                                                           इंद्रियाणि प्रमाथीनि हरंति प्रसभम् मन::॥(60)

अर्थ ‌‌‌‌‌‌--- -- हे अर्जुन ! आसक्ति क  नाश न होने के कारण ये  प्रमथन स्वभाव वाली इंद्रियां यत्न करते हुये बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात् हर  लेती हैं ।  

                                                           तानि सर्वाणि सन्यम्य  युक्त आसीत मत्पर:।

                                                           वशेहि यस्येंद्रियाणि तस्य प्रग्या  प्रतिष्ठ्ता    ।। (61)

अर्थ ---- इसलिये साधक को चाहिये कि वह उन सम्पूर्ण इंद्रियोंको वश मे करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण्होकर ध्यान मे बैठे , क्योंकि जिस पुरुष की इंद्रियां वश मे होती हैं,उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है ।


                                                         ध्यायतो   विषयांपुस:      संगस्तेषूपजायते :    ।    

                                                         संगात्संजायते  काम:: कामात्क्रोधोSभिजायते॥(62)

अर्थ --- विषयोंका चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयो मे  आसक्ति हो जाती है , आसक्ति से उन विषयोंकी कामना उत्पन्न  होती है और कामना मे विघ्न पडने से क्रोध उत्पन्न होता है । 

                                                          क्रोधात्भवति सम्मोह:   सम्मोहात्स्म्रतिविभ्रम:।

                                                          स्म्रतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो   बुद्धिनाशात्प्रणस्यति ॥(63)

अर्थ --- क्रोध से अत्यंत मूढ्भाव उत्पन्न हो जाता है , मूढ्भाव  से स्म्रति मे भ्रम हो जाता है ,स्म्रति मे भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् ग्यान  शक्ति का नाश हो जाता है  और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है । 







Friday, April 7, 2023

                                                         दुखेष्वनुद्विगनमना: :    सुखेषु विगतस्प्रह:।

                                                        वीतरागभयक्रोध:  स्थितधीर्मुनिउच्यते ॥ ( 56)

अर्थ --- दु:खो की प्राप्ति पर जिसके मन मेउद्वेग नही होता ,सुखो की प्राप्ति मे जो सर्वथा निस्प्रह है तथा जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गये है, ऐसा मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता है ।

                                                         य: सर्वत्रानभिस्नेह्स्तत्तत्प्राप्य   शुभाशुभम्  ।

                                                         नाभिनंदति न द्वेष्टि  तस्य प्रग्या प्रतिष्ठिता ॥ (57) 

अर्थ ‌‌‌‌‌‌‌----‌‌ जो पुरुष सर्वत्र स्नेह रहित हुआ उस उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर  न प्रशन्न होता है न द्वेष करता है  उसकी बुद्धि स्थिर  है  ।

                                                           यदा सन्हरतेचायम्     कूर्मोSन्गानीव   सर्वश:।

                                                           इंद्रियाणिंद्रियार्थेभ्यस्त्स्यप्रग्या        प्रतिष्ठिता ॥(58) 

अर्थ ‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌--- --  और कछुआ जैसे सब ओर से अपने  अंगो को समेट लेता है . वैसे ही यह पुरुष इंद्रियो के विषयो से  इंद्रियो को सब प्रकार से हटा लेता है , तब उसकी बुद्धि स्थिर है ऐसा समझना चाहिये ।

Thursday, April 6, 2023