तस्माद्यस्य महाबाहो निग्रहीतानि सर्वश:।
इंद्रियाणिंद्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रग्या प्रतिष्ठिता ॥(68)
अर्थ---- इसलिये हे महाबाहो! जिस पुरुष की इंद्रियां इंद्रियों के विषयों से सब प्रकार निग्रह की हुई हैं, उसी की बुद्धि स्थिर है ।
या निशा सर्व भूतानाम् तस्याम् जागर्ति सन्यमी।
यस्याम् जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने: ॥(69)
अर्थ ---- सम्पूर्ण प्राणियों के लिये जो रात्रि के समान है , उस नित्य ग्यान स्वरूप परमानंद की प्राप्ति मे स्थितप्रग्य योगी जागता है और जिस नाश वान सांसारिक सुख की प्राप्ति मे सब प्राणी जागते हैं, परमात्मा के तत्व को जानने वाले मुनि के लिये वह रात्रि के समान है ।
आपूर्यमाणमचल प्रतिष्ठं --
समुद्र माप: प्रविशंति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशंति सर्वे
स शांतिमाप्नोति न कामकामी ॥(70)
अर्थ --- जैसे नाना नदियोंके के जल सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र मे उसको विचलित न करते ही समा जाते हैं , वैसे ही सब भोग स्थित प्रग्य पुरुष मे उसको विचलित न करते ही समा जाते हैं ।
विहाय कामान्य: सर्वांपुमांश्चरति निस्प्रह: ।
निर्ममोनिरहंकार: स शांतिमधिगच्छति ॥(71)
अर्थ-- जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग कर ममतारहित , अहंकार रहित और स्प्रहा रहित हुआ विचरता है , वही शांति को प्राप्त होता है अर्थात वह शांति को प्राप्त है ।
एषा ब्राम्ही स्थिति: पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामंतकाले Sपि ब्रम्हनिर्वाणम्रच्छति ॥(72)
ओ3म तत्सदिति श्री मद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रम्हविद्यायाम्
योग शास्त्रे श्रीक्रष्णार्जुनसम्वादे सांख्य योगो
नाम द्वितीSयो :द्ध्याय : ॥
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