विषया विनिवर्तंते निराहारस्य देहिन: ।
रसवर्जं रसोSप्यस्य परम् द्रष्ट्वा निवर्तते ॥ (59)
अर्थ --- -- इंद्रिओं के द्वारा विषयों को ग्रहण करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निव्रत हो जाते हैं परंतु उनमे रहने वाली आसक्ति निव्रत नहींहोती। इस स्थितप्रग्य पुरुष की तो आसक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके निव्रत हो जाती है।
यततो ह्यपि कौंतेय प्रुरुषस्य विपश्चित:।
इंद्रियाणि प्रमाथीनि हरंति प्रसभम् मन::॥(60)
अर्थ --- -- हे अर्जुन ! आसक्ति क नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्वभाव वाली इंद्रियां यत्न करते हुये बुद्धिमान पुरुष के मन को भी बलात् हर लेती हैं ।
तानि सर्वाणि सन्यम्य युक्त आसीत मत्पर:।
वशेहि यस्येंद्रियाणि तस्य प्रग्या प्रतिष्ठ्ता ।। (61)
अर्थ ---- इसलिये साधक को चाहिये कि वह उन सम्पूर्ण इंद्रियोंको वश मे करके समाहित चित्त हुआ मेरे परायण्होकर ध्यान मे बैठे , क्योंकि जिस पुरुष की इंद्रियां वश मे होती हैं,उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है ।
ध्यायतो विषयांपुस: संगस्तेषूपजायते : ।
संगात्संजायते काम:: कामात्क्रोधोSभिजायते॥(62)
अर्थ --- विषयोंका चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयो मे आसक्ति हो जाती है , आसक्ति से उन विषयोंकी कामना उत्पन्न होती है और कामना मे विघ्न पडने से क्रोध उत्पन्न होता है ।
क्रोधात्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्म्रतिविभ्रम:।
स्म्रतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणस्यति ॥(63)
अर्थ --- क्रोध से अत्यंत मूढ्भाव उत्पन्न हो जाता है , मूढ्भाव से स्म्रति मे भ्रम हो जाता है ,स्म्रति मे भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात् ग्यान शक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है ।
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