Tuesday, April 18, 2023

 

अथ त्रतीयो अद्ध्याय ( अद्ध्याय तीन)

                                       अर्जुन उवाच

 (ग्यान योग और कर्म योग  के अनुसार अनासक्त भाव   से नियत कर्म करने  की स्रेष्ठता  का निरूपण)

                      ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।

                    तत्किम्  कर्मणि  घोरे मा नियोजयसि केशव ॥(3-1)

अर्थ --- अर्जुन बोले हे जनार्दन !  यदि आपको कर्म की अपेक्षा ग्यान श्रेष्ठ मान्य है तो फिर  हे केशव! मुझे भयंकर कर्म मे क्यों लगाते हैं ?

                    व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुधिं  मोहयसीव मे ।

                    तदेकम् वद  निश्चित्य  येन श्रेयोSहमाप्नुयाम्॥(3-2

अर्थ  --- आप मिले हुये से वचनो से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं
 इसलिये आप उस एक बात को निश्चित कर के कहिये  जिससे मै कल्याण को प्राप्त  हो जाऊं।

 

 

                                    श्री भगवान उवाच

    लोकेSस्मिंद्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।                                                                                    ग्यान योगेन सांख्यानाम्     कर्मयोगेन योगिनां ।(3-3)

   अर्थ--- श्री भगवान बोले --- हे निष्पाप इस लोक मे दो प्रकार की निष्ठा          मेरे द्वारा पहले कही गयी है  । उनमे से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ग्यान योग से और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से  होती है 

                     न कर्मणामनारम्भानैष्कर्म्यं    पुरुषोSष्नुते।

                    न च सन्यसनादेव  सिद्धिम्   समधिगच्छति ॥(3-4)

अर्थ--- मनुष्य न तो कर्मो का आरंभ  किये बिना निष्कर्मता को यानि योग निष्ठा को प्राप्त होता है  और न केवल कर्मो  के त्याग मात्र से सिद्धि यानी सांख्य निष्ठा को ही प्राप्त होता है।

                 न हि कश्चित्क्षणमपि  जातु तिष्ठत्यकर्मक्रत्।

                 कार्यते  ह्यवश:कर्म     सर्व: प्र्क्रतिजैर्गुणै: ॥(3-5)

अर्थ--- निस्संदेह कोई भी पुरुष किसी भी काल मे क्षण मात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता ; क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय  प्रक्रति जनित गुणो द्वारा परवश हुआ  कर्म करने के लिये बाद्ध्य किया जाता है ।

 

                 कर्मेंद्रियाणिसन्यम्य   य आस्ते  मनसा स्मरन्।

                इंद्रियार्थांविमूढात्मा  मिथ्याचार:      स उच्यते॥(3-6)

अर्थ – जो मूढ बुद्धि मनुष्य  समस्त इंद्रियों  को हठ पूर्वक ऊपर से रोक कर  मन से उन इंद्रियों के विषय का  चिंतन करता रहता है वह मिथ्याचारी   अर्थात दम्भी कहा जाता है ।

 यस्त्व इंद्रियाणि मनसा नियम्यारभतेर्जुन ।

कर्मेंद्रियै: कर्मयोगमसक्त:     स विशिष्यते ॥(3-7)

   किंतु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इंद्रियों को वश मे कर के  अनासक्त हुआ  समस्त इंद्रियों द्वारा कर्म योग का आचरण करता है , वही श्रेष्ठ है।

             नियतं कुरु कर्म त्वम् कर्म ज्यायो ह्यकर्मण:।

             शरीरयात्रापि     ते     प्रसिध्येदकर्मण:  ॥(3-8)

अर्थ --- तू शास्त्र विहित कर्तव्य कर्म कर ; क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना   श्रेष्ठ है  तथा कर्म न करने से तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा ।

 

व्याख्या   --- श्री मद्भगवद गीता के तीसरे  अद्ध्याय के आरम्भिक 1 से लेकर 8 श्लोकों मे  ग्यान योग और कर्म योग  के अनुसार अनासक्त भाव   से नियत कर्म करने  की स्रेष्ठता  का निरूपण किया गया है ।अद्ध्याय दो मे भगवान ने आत्मा की अमरता का उपदेश किया । इसी के साथ सांख्य योग   का उपदेश किया  । जिस समय अर्जुन सगे सम्बंधियों को देख कर अत्यंत ममता मोह के कारण विषाद उक्त हो गया था । कुरुक्षेत्र के समरांगण मे जहाँ उसके ताऊ,  चाचा , भाई, भतीजे एवम अन्य बहुत सारे वंश परिवार के लोग  युद्ध के लिये लिये तैयार थे । वे सब आपस मे  मार काट के लिये तत्पर  और अपनी अपनी जीत के लिये आशा वान  और  आतुर  थे। ऐसे मे श्री भगवान को  अर्जुन का मोह दूर करना ही था । तभी तो उन्हों  ने अर्जुन  को आत्मा की नित्यता, अमरता  और कभी किसी भी काल मे अपरिवर्तनीय शुद्ध, बुद्ध सत्ता होने का उपदेश  दिया  ।सांख्य का उपदेश अंतरात्मा का उपदेश है । यह ग्यान योग है । अर्जुन को जब भगवान ने युद्ध के लिये आदेशित किया और कहा  तू  निश्चय   ही युद्ध कर । तब  अर्जुन ने  अत्यंत विपर्यय की स्थिति मे श्री भगवान से कहा कि हे जनार्दन यदि आपको कर्म की अपेक्षा ग्यान  श्रेष्ठ है तो आप मुझे  भयंकर कर्म  मे क्यों लगाते हैं  ।हे भगवान आप कभी ग्यान योग तो कभी कर्म योग  को अच्छा बताते हैं ।आप मिले जुले वचनो से मेरी बुद्धि को मोहित करते हैं। अत: मेरे लिये जो अत्यंत कल्याण कारी हो ऐसा आदेश मुझे दीजिये ।भगवन जिससे मेरा कल्याण हो उस एक बात को निश्चित  होकर कहिये।

 

 श्री भगवान बोले --- हे निष्पाप! यह ग्यान और कर्म योग का आचरण यानी ये दोनो प्रकार की  निष्ठा पहले ही मेरे द्वारा कही गयी है ।

 

मनुष्य कर्मो का आरम्भ किये बिना  निष्कर्मता को प्राप्त नहीं कर सकता है यानी योग निष्ठाको नहीं प्राप्त कर सकता है  । और दूसरी तरफ  कर्मो के केवल त्याग मात्र से सिद्धि यानी सांख्य निष्ठा की प्राप्ति नहीं हो सकती है।

 

 अब सुन अर्जुन ! सांख्य योग की निष्ठा तो ग्यान योग से है अर्थात  माया से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणो मे बरतते हैं  । मन  इंद्रिय और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं मे कर्तापन के अभिमान से रहित  होकर सर्व व्यापी सच्चिदानंद घन  परमात्मा मे एकी भाव से स्थित होने  का नाम ग्यान  योग है। इसी को  सन्यास  सांख्य योग आदि नामो से कहा गया है।

 

फल और  आसक्ति को त्याग कर  भगवदाग्यानुसार  केवल भगवदर्थ समत्व  बुद्धि से  कर्म करने का नाम  निष्काम  कर्म योग है । इसी को समत्व योग  बुद्धियोग ,  कर्मयोग  .तदर्थ कर्म ,  मदर्थ कर्म,   मत्कर्म   आदि  नामो से  कहा गया है ।

 

जिस  अवस्था को प्राप्त हुए पुरुष के कर्म  अकर्म हो जाते हैं।  अर्थात  फल उत्पन्न नहीं  कर सकते  उस अवस्था का नाम निष्कर्मता है ।

 

वास्तव मे प्रक्रति जनित गुणो द्वारा परवश हुआ  मनुष्य कर्म करने को बाद्ध्य होता है ।अर्थात  सतो गुण ,  रजो गुण,  तमो गुण , ही मनुष्य को कर्म करने के प्रेरणा देते हैं। अर्थात   यह प्रक्रति ही  मनुष्य को एक तरह से कर्म करने को बाद्ध्य  करती है ।यही कारण है कि चाहते हुए  भी कोई   मनुष्य किसी भी काल  मे बिना कर्म किये नहीं रह सकता ।

 

आगे फिर कहा गया है कि इंद्रियों को ऊपर से रोककर अंदर से विषयों का चिंतन  करने वाला  मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है ।  इस विषय का वर्णन  दूसरे अद्ध्याय के  स्थित प्रग्य सम्बंधी वर्णन मे इंद्रिय निग्रह  पर जोर दिया गया है ।

 भगवान कहते हैं अपने इंद्रियों पर नियंत्रण करके जो मनुष्य  कर्म योग  का  आचरण अनासक्त भाव से  करता है । वही श्रेष्ठ है ।

 

भगवान कहते हैं कि तू शास्त्र सम्मत अर्थात जो धर्म ग्रंथों मे बताये गये कर्तव्य  कर्म हैं . उन्हे कर    क्योंकि कर्म    करने  की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है । श्री भगवान  अत्यन्त   स्पष्ट शब्दों मे अर्जुन से  कहते हैं कि बिना कर्तव्य कर्म  के तेरा शरीर  निर्वाह भी नहीं चलेगा ।उपर्युक्त आठ श्लोकों मे श्री क्रष्ण भगवान ने अर्जुन के माद्ध्यम से सम्पूर्ण मानव जगत को कर्म का पाठ पढाया। अनासक्त भाव से किये गये कर्म अंतत: ग्यान मे भष्म होते हैं जो प्राणी की अंतत: मुक्ति के हेतु हैं । ग्यान योग और कर्म योग  के अनुसार अनासक्त भाव   से नियत कर्म करने  की स्रेष्ठता  का निरूपण अद्ध्याय 3  विषयक यह व्याख्या  इस अकिंचन द्वारा प्रस्तुत  की जाती  है।

श्री हरि शरणं

सादर

राम किशोर द्विवेदी

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