स्थिर बुद्धि पुरुष के लक्षण और उसकी महिमा
व्याख्या ---- श्री मद्भगवद्गीता अध्याय 2 के श्लोक संख्या 54से 72 तक 18 श्लोकों
मे स्थितप्रग्य पुरुष के विषय मे श्री क्रष्ण भगवान ने अत्यंत गम्भीर वर्णन किया
है ।स्थितप्रग्य होना अर्थात अपने स्व मे होना यानी परमात्म तत्व मे विचरण करना ।
इस विषय की यह अकिंचन व्याख्या करने का
प्रयास कर रहा है ---- अर्जुन पूछते हैं कि हे केशव जो पुरुष समाधि कि स्थिति को प्राप्त होते हैं
या परम हंस की अवस्था को प्राप्तहोते हैं
ऐसे स्थितप्रग्य महा पुरुष कैसे पहचाने जाते हैं।
उनका बैठना , बोलना और चलना किस प्रकार का
होता है अ र्थात उनका आचरण कैसा होता है । ऐसे महापुरुष किस तरह की विशेष वाणी व्यहवार ,कार्य कलाप अथवा विशिष्ट कार्य शैली अथवा वाणी के द्वारा सामान्य मनुष्यों से अलग समझे
जाते हैं।
तब श्री भगवान ने कहा --
हे अर्जुन ऐसे महा पुरुष अपनी सम्पूर्ण
कामनाओं का त्याग करके आत्मा से आत्मा मे ही रमण करते हैं यहाँ आत्मा का आत्मा से ही संतुष्ट रहने के
विषय मे कहा गया है ।यह अत्यंत रहस्य मय है । यह परम हंस की अथवा समाधि के पार
पहुंचे पुरुष की स्थिति होती है।
दु;ख प्राप्ति मे जिसका मन उद्वेलित न हो सुख मे हर्षित न हो जिसके राग , भय,क्रोध नष्ट होगये हों। यह परमावस्था को प्राप्त पुरुष के लक्षण हैं। ऐसा
पुरुष शुभ - अशुभ की प्राप्ति मे दु:खी - सुखी नहीं होता है ।ऐसा पुरुष इंद्रियों
के विषयों से अपनी इंद्रियों को हटा लेता है ।जैसे कछुआ विपरीत परिस्थिति मे अपने अंगो को समेट लेता है ।इंद्रियों का अपने विषयों से अलग
करने के लिये कछुए का उदाहरण दिया गया है ।इंद्रियों का विषयों से हटने से ही
मात्र काम नहीं बनता । वास्तव मे विषयों से आसक्ति हटाये बिना काम नही चलता।ऐसे मे स्थितप्रग्य पुरुष की आसक्ति भी नष्ट होजाती है
।अगर विषयों से आसक्ति न हटे तो ये प्रमथन स्वभाव वाली इंद्रियां बुद्धिमान व्यक्ति के मन का भी हरण करलेती हैं ।इसलिये
साधना मे लगा हुआ पुरुष भगवान का ध्यान करते हुए मन से विषयों की आसक्ति हटाये ,
क्योंकि जिस पुरुष की
इंद्रियां वश मे होती हैं, उसी की बुद्धि स्थिर होती है ।
अब विशेष बिंदु यह है
कि मनुष्य के उत्थान या पतन का मूल कारण उसका ध्यान है। शुभ या अशुभ का ध्यान ।वास्तव मे उत्थान और पतन का कारण व्यक्ति मात्र का अच्छा
या बुरा चिंतन है । यह इस प्रकार है --- विषयों
के ध्यान से विषयों की आसक्ति होती है , आसक्ति से
उन्हे प्राप्त करने की कामना तीव्र होती है ।
कामना मे जब बाधा उत्पन्न होती है , तो फिर क्रोध उत्पन्न होता ह।
क्रोध उत्पन्न होने से मूढता का भाव पैदा
होता है। जब मूढ भाव उत्पन्न होता है तब स्म्रति मे भ्रम होता है अर्थात व्यक्ति
को यह समझ मे नहीं आता कि हम किस के साथ ? कब? कैसा ? और
किसलिये ? कौन सा ? आचरण करने लगते हैं
।बात- व्यवहार वाणी – सम्बंध छोटा- बडा ,नैतिक - अनैतिक आचरण, कुल - मर्यादा , वंश -
परम्परा , आदर्श
आदि की स्म्रति नहीं रहती । जब
स्म्रति का नाश होजाता है तब बुद्धि का
नाश तय है। बुद्धि यानी ग्यान शक्ति का नाश हो जाने पर व्यक्ति अपनी मानवीय ऊंचाइयों से गिर जाता है अर्थात उसका सर्वथा पतन हो जाता है ।इसका मतलब यह है के विषयों का
चिंतनअंतत: आचरण को कुत्सित करने वाला होता है ।
स्थित पुरुष , जिसने अपने अंत: करण को वश मे कर लिया है , ऐसा महा
पुरुष जिसने राग - द्वेष से रहित अपने मन सहित इंद्रियों को वश मे किया है वह
विषयों मे विचरण करता हुआ भी आनंद मे रहता
है ।क्योंकि वह विषयों का चिंतन नहीं करता ।अंत: करण की प्रशन्नता
होने के कारण उसके सम्पूर्ण दु:ख नष्ट हो जाते हैं और वह योगी शीघ्र परमात्मा मे
ही स्थिर होजाता है।
जिसका मन और
इंद्रियां जीती हुई नहीं हैं । उस
पुरुष की बुद्धि निस्चयात्मिका(निर्मल मति अर्थात सत्य का निर्णय करने वाली बुद्धि )नहीं होती और उसमे भावना का
अभाव होता है । भावना हीन पुरुष को शांति नहीं मिलती और अशांत पुरुष को सुख नहीं मिलता ।
जैसे नाव की दिशा वायु
तय करती है अगर नाविक के हाथ मे पतवार नहो हो तो ।ऐसे ही विषयों की अधीन जब इंन्द्रियां हो जायें तब मन जिस इंद्रिय के साथ होगा ऐसे मे
एक अकेली इंद्रिय ही मनुष्य की बुद्धि का नाश करदेती है। इसीलिये इंद्रियों का निग्रह ही पुरुष की
बुद्धि को स्थिर रखती है ।
जब सब सांसारिक प्राणी सोते हैं अर्थात जडता मे
होते हैं, निद्रा मे होते हैं, तब स्थितप्रग्य पुरुष जागता है और जब दुनियांदारी मे फंसे , उलझे , लोग जागते हैं तब नित्य ग्यान स्वरूप योगी सोता हैअर्थात वह भौतिक प्राप्तियों से
विरत होता है । अर्थात भौतिक जगत मे धन ,सम्पदा, लोक कीर्ति और द्र्व्य के अर्जन मे लोग जुटे रहते हैं तब योगी उन सबसे
विमुख होकर परमात्मा के चिंतन, ध्यान मे लगा होता है ।
श्री भगवान ने समुद्र के विषय मे कहा कि जैसे संसार की समस्त नदियां समुद्र मे समा जाती
हैं लेकिन सागर निस्चल रहता है अर्थात अपनी मर्यादा नहीं छोडता , तट नहीं लांघता। ऐसे ही सम्पूर्ण भोग
स्थित प्रग्य पुरुष मेबिना किसी विकार उत्पन्न किये समा जाते हैं ।तभी ऐसा
सन्यमी आत्म वेत्ता ग्यानी पुरुष विषयों
के प्रति तटस्थ रहता हुआ परमानंद के आनंद को प्राप्त करता है ।
जो मनुष्य कामना, ममता और अहंकार का त्याग करता है
और कामनाओं रहित जीता है । वह परम शांति को प्राप्त होता है।श्री भगवान अर्जुन से कहते हैं कि यही परम स्थिति है। ऐसा
योगी मोह जाल मे नहीं फंसता । अंत काल मे वह परम स्थितप्रग्य योगी ब्राम्ही स्थिति
को प्राप्त करता है ।
सम्प्रति स्थितप्रग्य
पुरुष विषयक अद्ध्याय 2 (54से72 तक) 18श्लोकों कीव्याख्या पूर्ण होती है । हरि शरणम्।
सादर रामकिशोर द्विवेदी
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