Saturday, April 8, 2023

                                                    रागद्वेषवियुक्तैस्तु   विषयानिंद्रियैश्चरन ।

                                                   आत्मवश्यैर्विद्धेयात्मा  प्रसादमधिगछति ॥ (64)

अर्थ ---- परंतु अपने अधीन किये हुए अंत:करण वाला साधक अपने वश मे की हुई, राग द्वेष से रहित इंद्रियोंद्वारा  विषयों मे  विचरण करता हुआ अंत;करण की प्रशन्नता को प्राप्त होता है ।

                                                   प्रसादे   सर्व दु; खानां  हानिरस्योपजायते।

                                                   प्रशन्नचेतसो   ह्याशु        बुद्धिपर्यवतिष्ठते ॥(65)

अर्थ --- अंत:करण की प्रसन्नता होनेपर इसकेसम्पूर्ण दु:खोंका अभाव होजाताहै और उस प्रशन्नचित्त वाले योगी की बुद्धि शीघ्र ही सब ओर से हट कर  एक परमात्मा मे ही भली भांति स्थिर हो जाती है।

                                                   नास्तिबुद्धिर्युक्तस्य न चायुक्तस्यभावना।

                                                   न चाभावयत: शांतिरशांतस्य कुत:: सुखम्॥ (66)

अर्थ---  न जीते हुए मन और इंद्रिओं वाले पुरुष मे  निश्चयात्मिका बुद्धि नहींहोती और   उस अयुक्त पुरुष के अंत;करण मे  भावना भी नहीं होती और उस भावना विहीन मनुष्य को शांति नही मिलती और शांति रहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है ?

इंद्रियाणां हि चरतां  यन्मनों S नुविधीयते ।

तदस्य हरति प्रग्याम् वायुर्नावमिवाम्भसि ॥(67)

अर्थ --- क्योंकि जैसे जल मे चलने वाली नाव को वायु हर लेती है , वैसे ही विषयो मे  विचरती हुई इंद्रियो मे से  मन   जिस इंद्रिय के साथ रहता है वह एक ही इंद्रिय इस अयुक्त पुरुष कीबुद्धि को हर लेती है।


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