Monday, June 28, 2010

shri mad bhagvadgita pratham addhyay ....aage ...

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुन समायुधि I
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथ :      II 4
 अर्थ : 
 इस सेना में भीम और अर्जुन के समान युद्ध करने वाले बहुत से वीर धनुर्धर हैं  यथा महारथी युयुधान विराट तथा
 द्रुपद I
व्याख्या :
  यहाँ पर भीम और अर्जुन के समान तुलना करके अनेको वीरो की युद्ध भूमि में उपस्थित  होने की बात बताई गई है दुर्योधन वस्तुत : भीम और अर्जुन को  अत्यंत बलशाली  समझता है  अत : इसीलिये अन्य वीरो को उनके समान बताता है हालाँकि युद्ध भूमि  में अनेक बलशाली योद्धा है तथापि यहाँ  कुछ अति प्रसिद्द एवं प्रबल योद्धाओं के रूप में युयुधान  विराट तथा राजा द्रुपद का नाम् विशेष   रूप से उद्घृत किया गया है I
धर्स्त्केतुश्चेकितान: काशिराजश्चवीर्यवान    I   
 पुरुजित्कुन्तिभोजश्च  शैव्यश्च  नर पुंगव :  II  5
अर्थ :   इनके साथ ही ध्रस्त केतु    चेकितान काशिराज और पुरुजित कुन्तिभोज और शैव्य जैसे महान बलशाली  योद्धा भी हैं 
युधामन्युश्च विक्रांत उत्तमौजाश्च    वीर्यवान  I
 सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महा रथ :        II6
अर्थ :  पराक्रमी युधामन्यु  अत्यंत बलशाली उत्तमौजा  सुभद्रा का पुत्र अभिमन्यु  तथा द्रौपदी के पांच   पुत्र  ये सभी महा रथी हैं 
व्याख्या : श्लोक ४, ५ ६मे दुर्योधन अपने आचार्य द्रोण को पांडु पक्ष के वीरो  का वर्णन  कर रहा है साथ ही  इन बहुत सारे  वीरो की तुलना  वह मात्र भीम और अर्जुन से कर रहा है आशय यह है की वह आचार्य को  ध्रस्त्द्युम्न   द्वारा बनाये ब्यूह में सम्मिलित योद्धाओं का सम्यक एवं स्पस्ट परिचय दे रहा है ताकि सेनापति द्रोण समझ सकें की प्रति पक्ष में हमें किस तरह के योद्धाओं से चार चार हाथ करने हैं युद्ध में योद्धा का रण  ज्ञान एवं रणनीति अत्यंत आवश्यक है यद्यपि  यह कार्य सेनापति का होता है की युद्ध विषयक  व्यवस्था की कमान स्वयं अपने हाथ में रखे एवं तदनुसार  कार्यवाही हेतु तत्पर रहे तथापि दुर्योधन को अपने वृद्ध गुरु आचार्य द्रोण कोयुद्ध क्षेत्र की  विहंगम जानकारी देना आवश्यक लगता हैI              


Thursday, June 24, 2010

shrimad bhagvadgita addhyay pratham...aage....

पश्यैताम पाण्डु पुत्रानामाचार्य  महती  चमूम I
 ब्यूढाम द्रुपद पुत्रेण तव शिष्येण धीमताम    II  ३
अर्थ  हे आचार्य पांडु पुत्रों की विशाल सेना को देखें जिसे आपके बुद्धिमान शिष्य एवं द्रुपद के पुत्र ने इतने कौशल से ब्यवस्थित किया
व्याख्या:  इस श्लोक में द्रुपद पुत्रेण आया है, महाराजा द्रुपद एवं आचार्य द्रोण बचपन के मित्र थे I बाद में उन दोनों महा पुरुषों में सत्तामद एवं ज्ञान मद के कारण विवाद उत्पन्न हो गया  जिस कारण उनमे एक दुसरे के प्रति आतंरिक वैर पनप गया द्रुपद  राज ने महान धनुर्धर आचार्य से बदला लेने के कारण पुत्र काम यज्ञं    कराया  जिससे उन्हें द्रोपदी एवं द्रिस्त्द्युम्न  प्राप्त हुए I ये  पुत्र एवं पुत्री शिक्षा दीक्षा हेतु आचार्य द्रोण के आश्रम   भेजे गए  आचार्य ने बिना किसी भेदभाव के द्रिस्त्द्युम्न को समस्त धनुर्वेदीय रहस्यों से परिचित कराया एवं व्यूह रचना में निष्णात  करा दिया  वह व्यूह रचना में आचार्य के बाद सबसे  अधिक कुशलता प्राप्त धनुर्धर था
अत : इस बात को द्रोण को स्मरण होना चाहिये की जो  व्यूह पांडवों की सेना में बना है वह उसके शिष्य एवं परम शत्रु द्रुपद के पुत्र ने बनाया है  यह वास्तव में दुर्योधन का कूटनैतिक सन्देश  है अपने गुरु के लिए की कहीं गुरु शिष्य के मोह जाल  में न फंस 
जाये I  अत : दुर्योधन ने उन्हेंअपने   सेनापति  होने के कर्तव्यों  को स्मरण कराया एवं भावनाओं से तिरोहित होने दिया I

Thursday, June 17, 2010

shri mad bhagvadgita addhyay pratham aage......

द्रस्त्वा तू पन्दवानीकम   व्यूढं दुर्योधनस्तदा I
आचार्यमुप संगम्य राजा वचनमब्रवीत II    2 
हे राजन पांडु पुत्रों द्वारा सेना की व्यूह रचना देख कर राजा दुर्योधन अपने गुरु के पास गया और उसने ये शब्द कहे I
  व्याख्या :ध्रतराष्ट्र    जो अत्यंत मोहान्ध एवं बहिर्नेत्रंध   तथा मात्र अपने पुत्रों विशेषकर अपने पुत्र दुर्योधन  का ही हित लाभ सोचता था I   उसने प्रथम श्लोक में वर्णित अपनी इक्षा व्यक्त की वास्तव में  यह जानने की, कि इस युद्ध  क्षेत्र कुरुक्षेत्र में (जो युद्ध   कि इक्षा सेआये  थे वस्तुत : ) मेरे पुत्र  विरत तो नहीं हो गए अत ;:उसने सर्व प्रथम अपने पुत्रों के विषय में जानना चाहा तत पश्चात पांडु पुत्रों के विषय में .I   युद्ध  का सजीव दर्शन  करने एवं वैसा ही आँखों देखा हाल बताने वाले संजय ने बड़ी चतुराई से ध्रतराष्ट्र    कि भावना एवं उनकी आत्यंतिक इक्षा को परखा तदनुसार उनहोंने प्रथमतः दुर्योधन के नेतृत्व का ज्ञान राजा को दिया I     उनहोंने कहा कि दुर्योधन ने बहुत सावधानी पूर्वक पहले पांडवों कीव्यूह रचना को देखा ,समझा   तत्पश्चात वह आचार्य द्रोण जो कौरुव सेना के सेना पति हैं उन्हें उनका ध्यानाकर्सित  कराया संभवतः अपने राजकुमार होने का दायित्व निभाया और स्वयं जाकर आचार्य  द्रोण से मिले ताकि आचार्य  अपनी रक्षा एवं आक्रमण सम्बन्धी चुनौतियों को समझें . इस तरह दुर्योधन ने एक कूटनीतिक गाम्भीर्य का परिचय दिया जिसमे वस्तु स्थिति के आधार पर  पात्रता के परिवर्तित होने का गुण सिद्ध होता है
अंतरजाल पर शुद्ध श्लोक लिख  पाना बहुत कठिन है अत : कृपया क्षमा करें I

Wednesday, June 9, 2010

shri mad bhagvad gita addhyay pratham

धर्म  क्षेत्रे कुरुक्षेत्रे सम वेता युयुत्सव :I
मामका :पान्दवाश्कैव   किम कुरवत संजय ;II   1
अर्थ:हे संजय जब मेरे और  पांडु के पुत्र धर्म के क्षेत्र कुरुक्षेत्र में युद्ध करने की इक्षा से एकत्र हुए .तब उनहोंने क्या किया I
व्याख्या :वह धर्म क्षेत्र  था I वह कुरुक्षेत्र था I  धृत राष्ट्र   ने बड़ी आशा से संजय  से पूंछा कि मेरे अर्थात कुरु पुत्र  और पांडु अर्थात पाण्डु के पुत्र  जो युद्ध में एक दूसरे को जीतने के लिए एकत्र हुए , उनको संजय द्वारा आँखों देखा हाल जानने कि इक्षा व्यक्त की  द्रतरास्त्र ने बड़े विश्वास के साथ इस क्षेत्र को कुरुक्षे कहा I (चूंकि वह कौरवों का क्षेत्र था तथा धृत राष्ट्र   राजा था पांडव राज्यचुत थे , अत: कौरवों के आधिपत्य  को सतत स्थापित करने हेतु बर्वश ही उस क्षेत्र को कुरुक्षेत्र कि संज्ञा दी और उसे पहले धर्म क्षेत्र कहा I बाद में कुरुक्षेत्र यद्यपि  जो  धर्मक्षेत्र  कहा गया बहुधा विसंगतियो  का पर्याय रहा  I  बहुत से ऐसे उदाहरण  उस धर्मक्षेत्र  कुरुक्षेत्र  के द्रस्तव्य हुए जिनके कारन कुरुक्षेत्र  को धर्मक्षेत्र मानने में विपर्याय  कि स्थिति बनीI
कुरुक्षेत्र जैसे युद्धक्षेत्र  को    धर्म क्षेत्र  मानने में विभ्रम उत्पन्न होता है एकल द्रस्टया यह   वाक्छल प्रतीत होता है ...लेकिन नहीं I भगवान कृष्ण  द्वैपायन व्यास   ने ,जिन्होंने महाभारत का प्रणयन  किया  उनहोंने भगवान परम योगेश्वर परात्पर ब्रम्ह्    वासुदेव के उपदेशों को सार्थक शब्द दिए वे पूर्णतया :सत्य  पर आधारित थे यद्यपि  सत्य  का अवगाहन इतना सरल एवं उथला नहीं कि अल्प प्रयास में सुलभ हो सके ..... अस्तु धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे से आरंभ होने वाली इस ब्रम्ह वाणी का आरंभ अत्यंत  अर्थ पूर्ण है
ओह्म परमात्मने नम:

Sunday, June 6, 2010

do shabd...

ओह्म परमात्मने नमः

पंचाननं  मरुत मतंग्गाजानाम नागान्तिकम  पुंगव पन्न्गानाम 
नागढ़िपारचित  भासुर कर्नफूलम वाराणसी पुर पतिम भज विश्व नाथं

इस परम पवित्र ग्रन्थ कि अर्थ सहित व्याख्या करने के पूर्व देवाधिदेव महादेव एवं गौरी गणेश कि स्तुति करता हूँ. क्यों कि मैं  अकिंचन अपने भावों एवं विचारों  को बिना महादेव कि शरण में रह कर अपने आपको निरीह समझता हूँ. परम परात्पर अकारण करुना वरुनालय परब्रम्ह साकार विग्रह वासुदेव भगवान के श्री मुख से निस्रत वाणी का अपनी भाषा  एवं भाव में वर्णन करने हेतु समस्त देवी देवताओं से प्रार्थना करता हूँ . मेरे इस प्रयास से यदि संसार का एक भी प्राणी लाभ ले पाया तो मैं  उसका कर्जदार रहूँगा.  मेरे मन में समानता, सदाचार, समाजवाद एवं विश्व में प्रचलित हर धर्म एवं संस्कृति के प्रति अगाध श्रद्धा का भाव है तथापि जैसे बालक की एक ही माता होती है एवं एक ही पिता होता है इस आधार  से यह रामकिशोर द्विवेदी सनातन धर्मावलम्बी वस्तुतः अपने मानव होने का धर्म निभा रहा है. संसार का वह प्रत्येक प्राणी जो हिंदी भाषा  जानता हो इस ब्लॉग के माध्यम  से मेरी आलोचना या  समालोचना करने के लिए आमंत्रित है.   चाहते हुए भी कुछा कठिन संस्कृत के शब्द या श्लोक इन्टरनेट पर हिंदी टाइपिंग कि अच्छी सुविधा न होने के कारन त्रुटियाँ हो सकती है चूंकि मैंने हिंदी में ही संपूर्ण सात  सौ श्लोक  लिखने एवं उनका शब्दार्थ तथा व्याख्या लिखने का मन बनाया है तो उस नाते राज भाषा  धर्मं का भी निर्वाह हो जायेगा. जैसा कि आप  सभी जानते हैं  कि बिना राष्ट्र  धर्म के निर्वाह के न तो वैयक्तिक धर्मं का निर्वाह संभव है और न ही मानव धर्म का निर्वाह  कर पाना संभव है. अतः जय भारत, जय भारती कहते हुए राष्ट्र  ध्वज, राष्ट्र  गान  एवं हिंदी राज भाषा  (राष्ट्र भाषा  होने की आशा  में) का सम्मान करते हुए समस्त भारतीय भाषाओं एवं विश्व वांग्मय को भी मान  देते हुए अगले ब्लॉग से अपना भाव रखने का प्रयास करूंगा. 

परमात्मने नमः

Wednesday, June 2, 2010

भारतीय दर्शन के विद्वानों के प्रति नम्र निवेदन



विनम्र निवेदन है की हम चाहते हुए भीशायद शुद्ध श्लोक नहीं लिख पायें कारण यह है की अंतर्जाल की टंकण व्यवस्था हमें संस्कृत में पूर्णतया शुद्ध लिख पाने को मजबूर करती हैतथापि हमारा प्रयास होगा की हम संस्कृत एवं हिदी में श्रीगीता की व्याख्या सरल शब्दों में कर पायें हिंदी भाषा संसार में बसे करोंड़ों लोगों तक अपनास्थान बना चुकी है ऐसे में विश्व के उन तमाम भगवद चरनानुरागियो तक शब्दों की अपनी सेवा दे पाए यही हमारा लक्ष्य है हम विद्वान् नहीं है ज्ञानी नहीं हैं अति बुद्धिमान नहीं है मात्र भगवद गीता की शरण में रह कर जो मन में आया या आगे भी जो आयेगा उसे संपूर्ण मानव मात्र के लिए सेवा करने का प्रयास करूंगा कृपया आप सभी से हमारा विनम्र अनुरोध है की आप सभी लोग हमारे ब्लॉग को पढ़ें एवं उस पर अपनी प्रतिक्रिया अवस्य दें
संपूर्ण संसार में श्रीमद्भागवद्गीता में श्रद्धा रखने वाले एवं विश्वास करने वाले सुधीजन हमारे विचार जान सकें श्री मद भगवद्गीता अनंतज्नान का भंडार लिए है जिसमें हजारों आचार्यों महापुरुषों विद्वानों साधू संतों सन्यासियों दर्शिनिकों ने हर काल स्थान पात्रता एवं परिस्थित्ति के आधार पर भाष्य किये विचार प्रस्तुत किये एवं प्रवचन तथा सत्संग आदि में जन सामान्य का अत्यंत भला कियासनातन धर्म के पर्मचार्यों जैसे अदि शंकराचार्य रामानुजाचार्य वल्लाबहचार्य निम्बार्काचार्य आदि ने अपने अपने दर्शन एवं चिंतन से प्रस्थान त्रयी का भाष्य कियावेदांत   मेंनिष्णात     विद्वान् जानते हैं की प्रस्थान त्रयी का तात्पर्य श्रीमद्भागवद्गीता ब्रम्हासूत्र एवं उपनिखदों का सम्पूर्णता के साथ भाष्य मानव समाज को उपलब्ध करना होता है प्रतिष्ठा सम्पन्न आचार्य अपने अपने ढंग से उक्त ग्रंथों का अभिनव भाष्य करताहै तत्पश्चात विश्व मानव की मंगल कामना एवं लोक कल्याण के लिए लोकार्पण करता है 
मैं न तो आचार्य हूँ न ही संत मैं एक आम आदमी हूँ एक बाल बच्चो दार  एक भीड़ में खोया एवं नौकर पेशा आदमी मुझे उम्मीद है की श्री मद भगवद गीता पर लिखा जाने वाला यह ब्लॉग आपलोगों को अपने बीच के ही किसी साथी से बात चीत करने जैसा लगेगा जिस गीता शाश्त्र को भगवद पद आदि शंकराचार्य ब्रम्हानिष्ठ परकम हंस ने की हो उसे मेरे जैसा आम इन्सान कुछ लिखने का साहस करे तो यह उस परम पुरुस की ही कृपा मानिये 
हमारी यह अर्चना महादेव को समर्पित है इदन्नमम