द्रस्त्वा तू पन्दवानीकम व्यूढं दुर्योधनस्तदा I
आचार्यमुप संगम्य राजा वचनमब्रवीत II 2
हे राजन पांडु पुत्रों द्वारा सेना की व्यूह रचना देख कर राजा दुर्योधन अपने गुरु के पास गया और उसने ये शब्द कहे I
व्याख्या :ध्रतराष्ट्र जो अत्यंत मोहान्ध एवं बहिर्नेत्रंध तथा मात्र अपने पुत्रों विशेषकर अपने पुत्र दुर्योधन का ही हित लाभ सोचता था I उसने प्रथम श्लोक में वर्णित अपनी इक्षा व्यक्त की वास्तव में यह जानने की, कि इस युद्ध क्षेत्र कुरुक्षेत्र में (जो युद्ध कि इक्षा सेआये थे वस्तुत : ) मेरे पुत्र विरत तो नहीं हो गए अत ;:उसने सर्व प्रथम अपने पुत्रों के विषय में जानना चाहा तत पश्चात पांडु पुत्रों के विषय में .I युद्ध का सजीव दर्शन करने एवं वैसा ही आँखों देखा हाल बताने वाले संजय ने बड़ी चतुराई से ध्रतराष्ट्र कि भावना एवं उनकी आत्यंतिक इक्षा को परखा तदनुसार उनहोंने प्रथमतः दुर्योधन के नेतृत्व का ज्ञान राजा को दिया I उनहोंने कहा कि दुर्योधन ने बहुत सावधानी पूर्वक पहले पांडवों कीव्यूह रचना को देखा ,समझा तत्पश्चात वह आचार्य द्रोण जो कौरुव सेना के सेना पति हैं उन्हें उनका ध्यानाकर्सित कराया संभवतः अपने राजकुमार होने का दायित्व निभाया और स्वयं जाकर आचार्य द्रोण से मिले ताकि आचार्य अपनी रक्षा एवं आक्रमण सम्बन्धी चुनौतियों को समझें . इस तरह दुर्योधन ने एक कूटनीतिक गाम्भीर्य का परिचय दिया जिसमे वस्तु स्थिति के आधार पर पात्रता के परिवर्तित होने का गुण सिद्ध होता है
अंतरजाल पर शुद्ध श्लोक लिख पाना बहुत कठिन है अत : कृपया क्षमा करें I
Thursday, June 17, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
is lekh ke baare men jitana kahaa jaai utana kam hai jo bhi isko pade use samjhane ki koshish kare
ReplyDeletemahesh singh bhadauriya
प्रयास करिये शुद्धता हेतु, यह थोड़ा कठिन तो है पर असंभव नहीं.
ReplyDelete.
.
यह श्लोक तो हमेँ नहीं पता है पर कुछ सहयोग कर सकता हूँ-
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत॥