अयनेसु च सर्वेषु यथा भागमवस्थिता : I
भीस्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्त : सर्व एव हि II ११
अर्थ : इसलिए सब मोर्चों पर सब अपनी अपनी जगह स्थित रहते हुए आपलोग सभी निस्संदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें I
व्याख्या :
आचार्य द्रोण पर पूर्ण विश्वाश व्यक्त करते हुए एवं उन्हें तरह तरह से मानसिक स्तर से पूर्ण रूपेण कौरुओं के पक्ष में करते हुए तथा युद्ध हेतु उकसाते हुए दुर्योधन पितामह भीष्म की प्रशंसा करता है एवं उनमे पूर्ण विश्वास व्यक्त करता है दुर्योधन सोचता है की कहीं अन्य धुरंधर योद्धा जो युद्ध में दुर्योद्धन के लिए जीवन की इक्षा का त्याग करके आये हैं उन्हें कहीं ऐसा न लगे की युव राज केवल आचार्य द्रोण एवं पितामह भीष्म की ही शौर्य गाथा गा रहा है इस भ्रम को दूर करने हेतु उसने सभी योद्धाओं से कहा की आप सभी ओर से पितामह भीष्म की ही रक्षा करें अर्थात पितामह अब वृद्ध हो चुके हैं इस तरह से सभी योद्धाओं से पितामह की रक्षा का निवेदन किया यह कूट नैतिक सन्देश दुर्योधन की वाकचातुरी का परिचायक है कोई भी राजा हो युवराज हो या मंत्री जब तक वह वाणी के कूटनैतिक प्रयोग में सक्षम नहीं होता तब तक उस पद का अधिकारी नहीं हो सकता हालां की कूट नीति में निपुण होना राजा होने केलिए आवश्यक बहुत सारे गुणों में से एकगुण होता है तथापि यह गुण राजा के लिए आवश्यक अंग है हालाँकि दुर्योधन कुरुवंश में सबसे बड़ा होने पर भी एवं कूट नैतिक वार्ता का धनी होने के बावजूद राजा होने केलिए आवश्यक अन्य बहुत सारे गुणों से युक्त नहीं था राजा को राज्य के सफल एवं कल्याण करी सञ्चालन हेतु कूट नीति का सहारा लेना आवश्यक होता है किन्तु दुर्योधन मात्र अपने निजी एवं वैयक्तिक लाभ के कारण कूट निति का सहारा लेता है I
Monday, July 5, 2010
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