Thursday, May 16, 2019


व्याख्या---  
अद्ध्याय 2  के श्लोक  संख्या39  से  लेकर 53  तक भगवान  श्री  क्रष्ण  ने  कर्म योग  के विषय  मे अर्जुन  को उपदेश  दिया है-

भगवान ने अर्जुन को अनासक्त भाव से कर्म करने का ग्यान दिया है जिससे कर्म बीज रूप मे तो रहेगा अर्थात लोक हित  मे किये हुए  कर्मो का परिणाम तो स्पष्ट होगा किंन्तु कर्ता के  द्वारा किए हुए कर्मो  का फल जो प्राणिमात्र  मे बंधन का कारण होता है ,  जीव उससे मुक्त होने की दिशा मे अपनी यात्रा आरम्भ करता है अर्थात कर्म फल को प्राप्त  नहीं होता है । श्री भगवान अर्जुन से उस अलौकिक  बुद्धि  का  वर्णन कर  रहे हैं जो कर्म फल के  प्रति  आसक्ति  को  मिटाता है । इस तरह की बुद्धि  को निश्चयात्मिका  बुद्धि  कहतेहैं। यह  बुद्धि  स्थिर चित्त एवम  परम  विवेक वान  पुरुषों को भगवानकी अहैतुकी क्रपा से ही प्राप्त  होती है । इसके विपरीत अविवेकी पुरुषों की बुद्धि अस्थिर  ,चंचल और कभी भी बदलने  वाली होती है । ऐसे  अविवेकी पुरुषों  का चित्त अपने को कर्ता मान कर सुख अथवा दुख  भोगता है ।कर्म फल  के  प्रसंशक जो वेद  वाक्यों  मे प्रीत  रखते हैं  उनकी बुद्धि निश्चयात्मिका नही होती अर्थात वे  कर्म फल के अनुरागी होते हैं ।संसार मे कर्मफल को चाहने वालों की ही  अधिकतम संख्या है । सामान्यजन तो कर्म फल को आगे रख कर उद्द्यम करतेहैं यहांतक  कि अत्यंत ग्यान  मे लिपटी हुई वाणी बोलने वाले तथाकथित विद्वान ,वैभव पूर्ण संतो का चोला धारण करने वाले तथा कथित महा पुरुष और साधु संत भी धन,मान. पद, प्रतिष्ठा मे लिप्त रहते हैं । ऐसे बहुत जन हैं जिनकी वाणी और प्रवचनों मे  तो  खूब ग्यान वैराग्य उमडता है लेकिन  अगलेही क्षण ये लोग कम दक्षिणा मिलने पर अधीर होते  दिखाई देते हैं। अत्यंत वैराग्यवान महापुरुषों  की संख्या बहुत  कम  है जोवास्तव  मे संत शिरोमणि हैं।उन के आगे सम्पूर्ण भारतीय हिंदूसमाज नतमस्तक है । श्रीमद्भगवद्गिता  के अद्ध्याय 2 के इन 15 श्लोकों मे कर्म योग की भूमिका है । इनका विशद विवेचन  और महिमा अद्ध्याय 3  मे और  आगे भी प्रस्तुत होगा ।परम गुरु श्री क्रष्ण जी  की पूर्ण अहैतुकी क्रपा के बिना संसारमे कर्म  करते  हुए अनासक्त रह पाना अत्यंतकठिन  है ।इस ग्रंथमे कहीं भी वेदो की महिमा का विरोध नही किया गया अपितु वेद  मे वर्णितकर्मकांड के द्वारा स्वर्गकी आकांक्षा की निंदा की गयी है यहां कर्म फल के त्यागका सुख आनंद के विशाल  सरोवर  तुल्य है जबकि स्वर्गादि सुखों को कूप के समान माना गया है ।मनुष्यका अधिकार कर्म करने मे है फल की प्राप्ति मे नहीं और उसे कर्म न करने की आसक्ति भी न हो ।अर्थात  मनुष्य मात्र को  कर्म करना ही चाहिए ।प्रमाद और  आलस्य के कारण किसी को भी कर्तव्य कर्म को छोडने का श्री गीता जी  आग्या नहीं  देती।
भगवानका अर्जुन को आदेश है  कि वह सफलता या असफलता मे सम भाव  होकर कर्तव्य कर्म यानी  युद्ध करे क्यों कि समस्त द्वंदो मे समत्व भाव ही योग है ।वास्तव मे समत्व के  सिद्धांत अर्थात समत्वरूप बुद्धियोग के सामने कामना सहित कर्मअत्यंत हीन है ।समत्व बुद्धि योग के सामने पाप पुन्यका कोई अर्थ  नहीं रहजाता । समत्व बुद्धि मे कर्मोकी कुशलता छिपी है और कर्मो  की कुशलता ही योग है। क्योंकि समबुद्धि से युक्त ग्यानीजन  कर्म से उत्पन्न होने वाली फल को  त्याग कर जन्म  रूप बंधन  से मुक्त होकर   निर्विकार परम पद को  प्राप्त हो जाते हैं। जिस काल मे तेरी   बुद्धि  मोह रूप दल दल को भली भांति पार  कर जायेगी , उस समय  तू सुने हुए और सुनने मे आनेवाले इस लोक और पर लोक सम्बंधी सभी भोगो से वैराग्य को प्राप्त  होजायेगा ।                                                                जिस काल मे तेरी   बुद्धि  मोह रूप दल दल को भली भांति पार  कर जायेगी , उस समय  तू सुने हुए और सुनने मे आनेवाले इस लोक और पर लोक सम्बंधी सभी भोगो से वैराग्य को प्राप्त  होजायेगा ।
भांति भांति के वचनो को सुनने से विचलित हुई  तेरी  बुद्धि  जब परमात्मा मे अचल और स्थिर ठहर जायेगी , तब तू योग को प्राप्त हो जायेगा अर्थात तेरा परमात्मासे नित्य सन्योग हो जायेगा ।
यहां कर्म योग की भाव व्याख्या प्रस्तुतकरने का प्रयास मात्र है ।श्री हरि शरणम्। सादर रामकिशोर द्विवेदी।

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