श्लोक : स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुंमर्हसि ।
धर्म्याद्धि उय्द्धाच्छ्रेयो$अन्यतक्षत्रियस्य न विद्यते ॥ (३१)
अर्थ : तथा अपने धर्म को देख कर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात तुझे भय नहीं करना चाहिए ; क्योकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़ कर दूसरा कोई कल्याण कारी कर्तव्य नहीं है ।
श्लोक : युद्धरच्छ चोपपन्ननं स्वर्ग द्वारमपावृतम ।
सुखिना क्षत्रिया: पार्थ लभन्ते युद्धमीद्रशम ॥ (३२)
अर्थ : हे पार्थ अपने आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते है ।
श्लोक अथ चेत्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि ।
तत : स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥(३३)
अर्थ : किन्तु तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा ।
श्लोक : अकीर्तिं चापि भूतानि ,
कथयिष्यन्ति ते$ व्ययाम ।
सम्भावितस्य चाकीर्ति-
मरणादतिरुच्यते ॥ (३४)
अर्थ : तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अप कीर्ति का कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है ॥
श्लोक : भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथा : ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवं ॥ ( ३५)
अर्थ : और जिनकी दृष्टि में तू बहुत अधिक सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा , वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे ।
अवाच्यवादांश्च बहून्दिष्यन्ति तवाहिताः
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरम न किं ॥(३६)
अर्थ : तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे न कहने योग्य वचन भी कहेंगे ; उससे अधिक दुःख क्या होगा ।
धर्म्याद्धि उय्द्धाच्छ्रेयो$अन्यतक्षत्रियस्य न विद्यते ॥ (३१)
अर्थ : तथा अपने धर्म को देख कर भी तू भय करने योग्य नहीं है अर्थात तुझे भय नहीं करना चाहिए ; क्योकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़ कर दूसरा कोई कल्याण कारी कर्तव्य नहीं है ।
श्लोक : युद्धरच्छ चोपपन्ननं स्वर्ग द्वारमपावृतम ।
सुखिना क्षत्रिया: पार्थ लभन्ते युद्धमीद्रशम ॥ (३२)
अर्थ : हे पार्थ अपने आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते है ।
श्लोक अथ चेत्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि ।
तत : स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥(३३)
अर्थ : किन्तु तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा ।
श्लोक : अकीर्तिं चापि भूतानि ,
कथयिष्यन्ति ते$ व्ययाम ।
सम्भावितस्य चाकीर्ति-
मरणादतिरुच्यते ॥ (३४)
अर्थ : तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अप कीर्ति का कथन करेंगे और माननीय पुरुष के लिए अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है ॥
श्लोक : भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथा : ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवं ॥ ( ३५)
अर्थ : और जिनकी दृष्टि में तू बहुत अधिक सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा , वे महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे ।
अवाच्यवादांश्च बहून्दिष्यन्ति तवाहिताः
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरम न किं ॥(३६)
अर्थ : तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे न कहने योग्य वचन भी कहेंगे ; उससे अधिक दुःख क्या होगा ।
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