Friday, March 30, 2012

pratham adhyaay se aage..

 श्लोक:
गाण्डीवं स्त्रंसते हस्तात्वक्चैव  परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यम्वस्थातु भ्रमतीव च में मन:।।(३०)

अर्थ:
गाण्डीव धनुष हाथ से खिसक रहा है. त्वचा बहुत जलरही है  साथ ही
मेरा मनन भ्रमित हो रहा है. मैं खड़ा रहने में भी समर्थ नहीं हूँ.

व्याख्या:
ये  सारे उपरोक्त लक्षण  उपर्युक्त अवस्था को प्राप्त व्यक्ति में परिलक्षित होते हैं.
अर्जुन का गाण्डीव भी शारीरिक शिथिलता के कारण हाथ से खिसक रहा है.
व्यक्ति का शारीरिक बल तब अर्थ-हीन होने लगता है जब मानसिक बल कमज़ोर होना शुरू होता है.
अर्जुन की त्वचा का जलना, मन का भ्रमित होना या खड़े रहने में समर्थ न हो पाना मोहयुक्त विषाद
के कारण है. यह उसकी आप्त करुना के  कारण भी हो सकता है जो परिजन, प्रेमियों, सगे सम्बन्धियों के प्रति है.


श्लोक:
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोsनुपश्यामि   हत्वा  स्वजन माहवे।।(३१)

अर्थ:
हे केशव! मुझे अपशकुन दिखाई दे रहे हैं. इस युद्ध में अपने सम्बन्धियों को मार कर मुझे कोई भलाई नहीं दिखती.

 व्याख्या:
परिस्थितियों के जाल में लिप्त अर्जुन मोह बंधन में फसा था. उसे मोहवश हर दिशा में प्रतिकूलता नज़र आती थी. उसको लगता था के जब उसके सगे सम्बन्धी ही नहीं रहेंगे तो उसके जीने का अर्थ क्या है. अर्जुन का यह विषाद पूर्णतयः उसके देह ममता के कारण था क्योंकि वो संसार का सारा प्रकृति व्यापार देह तक ही समझता था.
 

श्लोक:
न कान्क्षे विजयं कृष्ण  न च राज्यं सुखानि च ।
किम नो राज्येन गोविन्द किम भोगैर्जीवितेन वा ।।(३२)

अर्थ:
हे कृष्ण! मुझे विजय नहीं चाहिए न ही राज्य और न सुख चाहिए. हमें राज्य से, सुख भोग से यहाँ तक की जीवित रहकर भी क्या करना है.

व्याख्या:
अर्जुन इस तरह से पूर्ण मोह ग्रसित होकर राज सुख वैभव यहाँ तक की जीवन से भी क्षणिक वैराग्य का भाव लिए मोह युक्त वाणी बोल रहा है.


श्लोक:
येषामर्थे कांक्षितम  नो राजम भोगा :सुखानि च ।
ता इमेsवस्थिता  युद्धे प्रानास्त्यक्तवा धनानि च ।।(३३)

अर्थ:
हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुख आदि अभीष्ट है वही सब जन धन और जीवन की आशा को त्याग कर युद्ध में खड़े हैं.

व्याख्या:
युद्ध में अपने और कौरवों के पक्ष के विभिन्न सेनानियों को देख कर ऐसा लगता है की ये सारे लोग राज और सुख छोड़ कर यहाँ जीतने-हारने के कारण, अपने पराये को न देखते हुए युद्ध में खड़े हैं.


श्लोक:
आचार्या: पितर: पुत्रास्तथैव च  पितामहा:।
मातुला : श्वसुर: पुत्रा श्याला : सम्बंधिनश्तथा।।(३४)

अर्थ:
गुरुजन , ताऊ. चाचे, लड़के और उसी प्रकार दादे, मामे, श्वसुर, पौत्र, साले और सगे सम्बन्धी लोग हैं.

व्याख्या:
उपर्कित श्लोक में संबंधों का वर्णन है.


श्लोक:
एतान्न  हन्तुमिछामी  हंतो  घ्नातोsपी मधुसूदन ।
अपि त्रैलोक्य राज्यस्  हेतो : किम  नु महीकृते ।।(३५)

अर्थ:
हे मधुसूदन! मुझे मारने पर भी अथवा तीनो लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सब को मारना नहीं चाहता फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है.

व्याख्या:
अर्जुन युद्ध न करने के लिए हर तरह से त्याग की बात करते हैं. यहाँ तक की संसार में लोकों के राज्य से बढ़कर कोई लाभ नहीं है. अर्जुन उन समस्त लोकों के त्याग की बात करते हैं.


श्लोक:
निहत्य धार्त्र्रस्त्रन्न : का प्रीती : स्याज्जनार्दन ।
पाप्मेवाश्र्येदस्मान हत्वैतानात्तायीन:  ।।(36)

अर्थ:
 हे जनार्दन! ध्रतराष्ट्र के पुत्रों को मार कर हमें क्या प्रसन्नता होगी. इन आतताइयों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा.

व्याख्या:
अर्जुन समझता है की युद्ध में मारे गए योद्धाओं से कोई लाभ नहीं होगा, अपितु उल्टा पाप का भागीदार बनेगा.
 

श्लोक:
तस्मान्नार्हा   वयं  हन्तु धार्त्र रास्त्रान स्वबंधुवान ।
स्वजनं ही कथं हत्वा सुखिन: स्याम माधव  ।।(३७)

अर्थ:
अतैव हे माधव! अपने ही बांधव ध्रितराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं हैं क्योंकि अपने ही कुटुंब को मार कर हम सुखी कैसे होंगे?

व्याख्या:
इस युद्ध में अपने ही कुल के लोगों को मरता देख कर अर्जुन को लगता है की वह प्रसन्न नहीं होगा, क्योंकि अपने ही परिवार और सम्बन्धियों को मारकर किसे का ह्रदय कैसे पुलकित हो सकता है ये उसकी समझ से परे है.


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