श्लोक : मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्ण सुखदुःखदा: ।
आगमापायिनो $नित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥ १४
अर्थ : हे कुन्तीपुत्र ! सर्दी -गर्मी और सुख दुःख को देने वाले इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो उत्पत्ति और अनित्य है इसलिए हे भारत ! उनको तू सहन कर
श्लोक : यं हि न व्यथयन्तत्एते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सो$ मृत्त्वाय कल्पते ॥ १५
अर्थ : क्योंकि हे पुरुष श्रेष्ठ ! दुखसुख को सामान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये इंद्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते , वह मोक्ष के योग्य होता है ।
श्लोक : नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्द्यते सत : ।
उभयोरपि द्रस्ट$न्तस्त्वन्यो स्तत्वदर्शिभि ॥ १६
अर्थ : असत वास्तु की तो सत्ता नहीं है और सैट का अभाव नहीं है । इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व तत्व ज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है ।
श्लोक : अविनाशि तू तत्द्विद्धि येन सर्वमिदं ततं ।
विनाशमव्यस्यास न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥ १७
अर्थ : नाश रहित तो तू उसको जान , जिससे यह सम्पूर्ण जगत- दृश्य वर्ग व्याप्त है । इस अविनाशी का विनाश करने में कोइ भी समर्थ नहीं है ।
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