द्वितीय अद्ध्याय। .........
श्लोक कार्पण्य दोषोपहत स्वभाव :
प्रच्छामि त्वां धर्मसम्मूढ चेत : ।
यच्छ्रेय : स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिस्यास्ते$हं शादी मां त्वां प्रपन्नं ॥ ७
अर्थ : कायरता रूप दोष से उपहृत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं , आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याण कारक हो , वह मेरे लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ इसलिए आपके शरण हुए मुझको आप शिक्षा दीजिए ।
श्लोक : नहि प्रपश्यामि ममापनुद्द्या -
द्यच्छोक मुच्छोषणमिन्द्रियाणां ।
अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धं
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यं ॥ ८
अर्थ : क्योंकि भूमि में निष्कण्टक धन धान्य संपन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ , जो मेरी इंद्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके ।
व्याख्या : श्लोक संख्या चार से लेकर आठ तक पांच श्लोकों में अर्जुन ने युद्ध न करने के सन्दर्भ मे अपनी दलील पेश की हालांकि युद्ध न करने के प्रति जो वाद उसने प्रस्तुत किया वह प्रथम द्रृष्टि में बड़ा ही नैतिक , समझदारी वाला और त्याग पूर्ण लगता है ।
उसकी युद्ध न करने हेतु विवेचना जन सामान्य के लिए बड़ी सार्थक लग सकती है तथापि ऐसा है बिलकुल ही नहीं । कभी कभी डरा , सहमा व्यक्ति अपनी मोहांधता को ठीक ठहराता है । अपनी कायरता व् धर्म से पलायन होने को ही सच्चे मायने में नीति गत बताताहै ।
अर्जुन का पितामह भीष्म वआचार्य द्रोण पर प्रहार न करना , गुरु आदि श्रेष्ठ जनो को मारने की अपेक्षा भीख मांग कर खाना रुधिर से सने अर्थ ,काम रूप भोगों को न भोगना आदि कायरता का द्योतक है । उसका यह मानना की वह युद्ध में जीतेगा भी या नहीं अथवा जीत कर भी राज्य के सुख को कैसे भोग पायेगा आदि आदि । वस्तुत : यह सब मोह से युक्त वाणी का परिचायक है । हालांकी उसे यह भी लग रहा है कि श्री कृष्ण उसे युद्ध करने का आदेश दिया है । इस विषय में वह शिष्यत्व ग्रहण करते हुए जानना चाहता है की युद्ध करने अथवा युद्ध न करने में कौन सा सर्व श्रेष्ठ निर्णय है । वह भगवान की शरण में जाता है तथा विनती करता है की वे अर्जुन को वास्तविक एवं कल्याणकारी मार्ग दिखाएँ अर्थात वास्तविक एवं सत्य व धर्म की दिशा दे ।
अर्जुन का हालांकि युद्ध में उपरति का भाव तो दिखाई देता है तथापि वह भगवान कृष्ण से निर्देश भी चाहता है क्योंकि वह वास्तव में श्री कृष्ण को ही अपना सच्चा हितैषी मानता है ।
अर्जुन अपने को जो करना उचित है उसका श्री कृष्ण की शरणागत होकर सद्गुरु की तरह मार्ग दर्शन चाहताहै
इन पांच श्लोको में अर्जुन ने बिना रुके अपने मन की बात कह दी और अपने मोहित हुए चित्त का कारण भी प्रकट किया है । अब इसके आगे संजय का कथन है
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श्लोक कार्पण्य दोषोपहत स्वभाव :
प्रच्छामि त्वां धर्मसम्मूढ चेत : ।
यच्छ्रेय : स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिस्यास्ते$हं शादी मां त्वां प्रपन्नं ॥ ७
अर्थ : कायरता रूप दोष से उपहृत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं , आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याण कारक हो , वह मेरे लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ इसलिए आपके शरण हुए मुझको आप शिक्षा दीजिए ।
श्लोक : नहि प्रपश्यामि ममापनुद्द्या -
द्यच्छोक मुच्छोषणमिन्द्रियाणां ।
अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धं
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यं ॥ ८
अर्थ : क्योंकि भूमि में निष्कण्टक धन धान्य संपन्न राज्य को और देवताओं के स्वामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ , जो मेरी इंद्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके ।
व्याख्या : श्लोक संख्या चार से लेकर आठ तक पांच श्लोकों में अर्जुन ने युद्ध न करने के सन्दर्भ मे अपनी दलील पेश की हालांकि युद्ध न करने के प्रति जो वाद उसने प्रस्तुत किया वह प्रथम द्रृष्टि में बड़ा ही नैतिक , समझदारी वाला और त्याग पूर्ण लगता है ।
उसकी युद्ध न करने हेतु विवेचना जन सामान्य के लिए बड़ी सार्थक लग सकती है तथापि ऐसा है बिलकुल ही नहीं । कभी कभी डरा , सहमा व्यक्ति अपनी मोहांधता को ठीक ठहराता है । अपनी कायरता व् धर्म से पलायन होने को ही सच्चे मायने में नीति गत बताताहै ।
अर्जुन का पितामह भीष्म वआचार्य द्रोण पर प्रहार न करना , गुरु आदि श्रेष्ठ जनो को मारने की अपेक्षा भीख मांग कर खाना रुधिर से सने अर्थ ,काम रूप भोगों को न भोगना आदि कायरता का द्योतक है । उसका यह मानना की वह युद्ध में जीतेगा भी या नहीं अथवा जीत कर भी राज्य के सुख को कैसे भोग पायेगा आदि आदि । वस्तुत : यह सब मोह से युक्त वाणी का परिचायक है । हालांकी उसे यह भी लग रहा है कि श्री कृष्ण उसे युद्ध करने का आदेश दिया है । इस विषय में वह शिष्यत्व ग्रहण करते हुए जानना चाहता है की युद्ध करने अथवा युद्ध न करने में कौन सा सर्व श्रेष्ठ निर्णय है । वह भगवान की शरण में जाता है तथा विनती करता है की वे अर्जुन को वास्तविक एवं कल्याणकारी मार्ग दिखाएँ अर्थात वास्तविक एवं सत्य व धर्म की दिशा दे ।
अर्जुन का हालांकि युद्ध में उपरति का भाव तो दिखाई देता है तथापि वह भगवान कृष्ण से निर्देश भी चाहता है क्योंकि वह वास्तव में श्री कृष्ण को ही अपना सच्चा हितैषी मानता है ।
अर्जुन अपने को जो करना उचित है उसका श्री कृष्ण की शरणागत होकर सद्गुरु की तरह मार्ग दर्शन चाहताहै
इन पांच श्लोको में अर्जुन ने बिना रुके अपने मन की बात कह दी और अपने मोहित हुए चित्त का कारण भी प्रकट किया है । अब इसके आगे संजय का कथन है
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